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________________ १३५ गाथा-३४ पिछली गाथा में आत्मा को संसार अवस्था में प्रदेशत्व गुण के संकोच-विस्तार स्वभाव के कारण स्वदेह प्रमाण सिद्ध किया है। अब प्रस्तुत गाथा में कहते हैं कि ह्र आत्मा व शरीर एक क्षेत्रावगाही होकर भी एक रूप नहीं होता। मूलगाथा इसप्रकार है। सव्वत्थ अस्थि जीवो ण य एक्को एक्ककाय एक्कट्ठी। अज्झवसाणविसिट्ठो चिट्ठदि मलिणो रजमलेहिं ।।३४।। (हरिगीत) दूध-जल वत एक जिय-तन फिर भी कभी नहीं एक हों। अध्यवसान विभाव से जिय मलिन हो जग में भ्रमें ||३४|| यद्यपि आत्मा देह के साथ दूध-पानी की भाँति एक-मेक होकर रहता है; तथापि एकरूप कभी नहीं होता। अपने विभावस्वभाव के कारण अध्यवसान विशिष्ट वर्तता हुआ कर्मरूप रज से मलिन होने से संसार में भ्रमण करता है। आचार्य अमृतचन्द्र टीका में कहते हैं कि ह्र यहाँ जीव का देह से देहान्तर में अर्थात् एक शरीर से अन्य शरीर में अस्तित्व, देह से पृथकत्व तथा देहान्तर में गमन के कारणों का निर्देश किया है। आत्मा संसार अवस्था में क्रमवर्ती अछिन्न (अटूट) शरीर प्रवाह में जिसप्रकार एक शरीर में वर्तता है; उसीप्रकार क्रम से अन्य शरीरों में भी वर्तता है। इसप्रकार उसका सर्वत्र (सर्व शरीरों में) अस्तित्व है और किसी एक शरीर में एक साथ एक क्षेत्रावगाही रहने पर भी भिन्न स्वभाव के कारण उसके साथ एकरूप नहीं होता। पानी में दूध की भाँति एकमेक होकर भी पृथक रहता है। इसप्रकार उसके देह से पृथकपना है। तथा अनादिबंधरूप उपाधि से परिवर्तन पाने वाले विविध अध्यवसायों से विशिष्ट राग-द्वेष-मोहमय होने के कारण तथा उन अध्यवसानों के निमित्त से आसवित कर्मसमूह से मलिन होने के कारण संसार में भ्रमण जीव द्रव्यास्तिकाय (गाथा २७ से७३) करते हुए आत्मा को अन्य-अन्य शरीरों में प्रवेश होता है। इसप्रकार उसे देहान्तर में गमन होने का कारण कहा गया है। __आचार्य जयसेन की टीका में विशेष उल्लेखनीय बात यह है कि वही जीव सर्वत्र है, चार्वाकमत की भाँति जीव नया उत्पन्न नहीं होता। हाँ, अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से एकमेक भी है। यहाँ जो आत्मा को शरीर से भिन्न अनन्तज्ञानादि गुणमय शुद्धात्मा कहा है वह शुभाशुभ संकल्प-विकल्प के परिहारकाल में सर्वप्रकार से उपादेय हैं; यह बताया है। कवि हीरानन्द ने उक्त कथन को निम्न प्रकार व्यक्त किया है ह्र (दोहा) जीव अस्ति सर्वत्र है, नहिं इक देहमिलाप । अध्यवसान विसिष्ट है, रजमल-मलिन-प्रताप ।।१८९।। (सवैया इकतीसा) संसारी अवस्था माहि क्रमबरती सरीर, ___ तातै जीव देहधारी नाना देह धरै है। खीर-नीर एक जैसैं जीव देह एक दिखै, भिन्नता सुभाव तातै एकता न करै है। पूरब दरब-करम-उदैमैं नवा भाव, तातें दर्वकर्म नवा नानारूप वरै है। ताव दर्वकर्मउदै देह नानारूप सधै, तातें देह भिन्न जानि ग्यानी जीव तरै है।।१९० ।। जीव और शरीर मिले होने पर भी अमिल हैं; किन्तु जीव अपने विभाव स्वभाव के कारण अध्यवसान रूप से वर्तता हुआ कर्मरूप मल से मलिन होने से संसार में भ्रमण करता है। संसारी अवस्था में देहधारी जीव एकमेक होकर भी द्रव्य कर्म के उदयवश नाना रूप धारण करने के कारण भिन्न-भिन्न हैं। ज्ञानी ऐसा जानते हैं, इसकारण वे संसार से तर जाते हैं। (76)
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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