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________________ गाथा - ३३ पिछली गाथा में यह कह आये हैं कि ह्र जीव के अगुरुलघुत्व गुण के छोटे से छोटे अंश (अविभागी प्रतिच्छेद) करने पर स्वभाव से ही उसके अनन्त गुणांश होते हैं। इसलिए जीव सदैव (षट्गुण-हानि युक्त) अनन्त अंशों जितना है और जीव के स्वक्षेत्र के छोटे से छोटे अंश करने पर स्वभाव से ही सदैव असंख्य प्रदेश अंश होते हैं। प्रस्तुत गाथा में अगुरुलघु का स्वरूप कहते हैं, जो इसप्रकार है : ह्र जह पउमराय रयणं खित्तं खीरे पभासयदि खीरं । तह देही देहत्थो सदेहमेत्तं पभासयदि ||३३|| (हरिगीत) अलप या बहु क्षीर में ज्यों मणि आकृति गहे । त्यों लघु-गुरु इस देह में, ये जीव आकृतियाँ धरे ॥ ३३ ॥ जिसप्रकार दूध में डाला गया पद्मराग रत्न अपनी प्रभा से अभेदरूप एकमेकरूप व्याप्त होता हुआ प्रतीत होता है, उसीप्रकार जीव देह में रहता हुआ स्वदेह प्रमाण प्रकाशित होता है। जीव अनादिकाल से कषाय द्वारा मलिन होने के कारण शरीर में रहता हुआ स्व-प्रदेशों द्वारा उस शरीर में व्याप्त (एकमेक) होता है। आचार्य श्री अमृतचन्द्र टीका में कहते हैं कि ह्न यह देहमात्रपने के दृष्टान्त का कथन है। जिसप्रकार अग्नि के संयोग से उस में उफान आने पर उस पद्मराग रत्न के प्रभा समूह में उफान आता है अर्थात् वह पद्मरागरत्न भी विस्तार को प्राप्त होता है और दूध बैठ जाने पर प्रभा समूह भी बैठ जाता है; उसीप्रकार जीव अनादि से कषाय से मलिन होता हुआ तथा शरीर में रहता हुआ अपने स्वप्रदेश में रहता है और विशिष्ट आहारादि के (74) जीव द्रव्यास्तिकाय (गाथा ३७ से ७३) १३१ वश उस शरीर में वृद्धि होने पर उस जीव के प्रदेश विस्तृत होते हैं और शरीर दुबला होने पर प्रदेश भी संकुचित हो जाते हैं। पुनश्च, संसारी जीव को नामकर्म के निमित्त से जब जैसा छोटाबड़ा शरीर प्राप्त होता है तब वैसा ही आत्मा के प्रदेशों का संकोचविस्तार होता है। इसी बात को जयसेनाचार्य कहते हैं कि ह्र जैसे दूध में उफान आने पर दूध बर्तन के ऊपर तक आ जाता तो दूध में पड़ा पद्मरागमणी की प्रभा भी उफान के साथ ऊपर तक आ जाती है, उसीप्रकार विशिष्ट आहार होने पर शरीर बढ़ने से जीव के प्रदेश भी विस्तृत हो जाते हैं और कम होने पर संकुचित हो जाते हैं। अथवा जिसप्रकार अधिक दूध में पड़ा वही प्रभा समूह अधिक दूध को व्याप्त करता है, तथा कम दूध में पड़ा हुआ कम दूध को व्याप्त करता है; उसीप्रकार यद्यपि जो शुद्ध आत्मा तीन लोक, तीन काल सम्बन्धी समस्त द्रव्य-गुण- पर्यायों को एक समय में प्रकाशित करने में समर्थ होता है; तथापि मिथ्यात्व रागादि से उपार्जित शरीर नामकर्म के उदय से उत्पन्न विस्तार-संकोच के अधीन होने से बड़े से बड़ा हजार योजन प्रमाण महामत्स्य और छोटे से छोटा (जघन्य) अवगाहना परिणत होता हुआ उत्सेधांगुल को असंख्य भाग प्रमाण लब्धि अपर्याप्तक सूक्ष्म निगोद शरीर को व्याप्त करता है तथा मध्यम अवगाहना से मध्यम शरीरों को प्राप्त करता है। कवि हीराचन्दजी ने भी यही भाव प्रगट किया है। (सवैया इकतीसा ) जैसे पद्मरागमनि दूधकै समूह मध्य, अपने उद्योतकरि सारै दूध व्यापै है । आगि योग पाय दूध बढ़े प्रभाखंध बढ़े, दूध घटै प्रभा घटै दोऊ एक मापै है ।।
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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