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________________ पञ्चास्तिकाय परिशीलन संसारी जीव उन दोनों प्राणों को त्रिकाल अटूट धारा रूप से धारण करता है, उनको जीवत्व है। सिद्ध जीव को तो केवल चेतनारूप भाव प्राणों का धारक होने से ही उनके जीवत्व है। आचार्य जयसेन कहते हैं कि ह्न यद्यपि शुद्ध निश्चय से जीव शुद्ध चैतन्य आदि प्राणों से जीता है; तथापि अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से द्रव्यरूप तथा अशुद्ध निश्चयनय से भावरूप चारों प्राणों द्वारा संसार अवस्था में वर्तमान काल में जीता है, भविष्य में जियेगा तथा भूतकाल में जीता था; वह चार प्राणों से सहित जीव है। वे द्रव्य-भावप्राण भी अभेद से इन्द्रिय, बल, आयु और उच्छ्वास लक्षणरूप हैं। तात्पर्य यह है कि मन, वचन, काय के निरोधपूर्वक पाँचों इन्द्रिय के विषयों से व्यावर्तन के बल द्वारा शुद्ध चैतन्यादि प्राण सहित जीवास्तिकाय ही उपादेय है, ध्यान का ध्येय है। इसी बात को कविवर हीराचन्दजी पद्य में कहते हैं ह्र (दोहा) १२४ प्रान चारि तिहुँकालमैं जीवत सो पुन जीव । बल - इंद्रिय- उस्सास फुनि आयु जु प्रान सदीव ।। १७८ ।। ( सवैया ) बल - इंदिय - आयु-उछास नाम प्रान चारि, भाव - दरव-भेदतैं दुविध बखान है । चेतनारूप जो जो सो सो भाव प्रान लसैं, पुद्गल पिंडरूपी दरव परान है ।। तीन कालविषै प्रान-संतति सुछंदरूप, याहीतैं जगत माहिं जीव अभिधान है। मुगतिमैं चेतनादि भावप्रान धारनतें, सुद्ध जीव-भेद सोई अनुभौ प्रमान है ।। १७९ ।। (71) जीव द्रव्यास्तिकाय (गाथा २७ से ७३) १२५ (दोहा) सुद्ध प्रान सिवजीवकै, सदाकाल आदेय । संसारी परजोगतैं, विकल बहिर्मुख हेय ।। १८० ।। उपर्युक्त पद्यों में चारों द्रव्य एवं भाव प्राणों द्वारा जीव तथा अजीव की पहचान कराते हुए शुद्ध जीव का आश्रय लेने को कहा गया है तथा संसारी अवस्था को विकल, बर्हिमुख कह कर उसे हेय कहा गया है। गुरुदेवश्री कानजी स्वामी ने इस प्रकरण में विशेष यह कहा है कि ह्न “जो जीव अल्पज्ञ की क्षणिक-अपूर्ण पर्याय को सम्पूर्ण जीवद्रव्य मानता है, वह जीव पर्यायबुद्धिरूप अज्ञान के कारण संसार में परिभ्रमण करता है और जो त्रिकाली पूर्ण स्वभाव को मानकर स्व-सन्मुख होता है, वह अशरीरी सिद्ध पद प्राप्तकर अविनाशी सुख को प्राप्त करता है। बल, इन्द्रिय, आयु और श्वासोच्छ्वास ह्न इन चार प्राणों का स्पष्टीकरण करते हुए कहा गया है कि मन-वचन-काय ह्न ये तीनों तो जड़ हैं, इनके साथ जुड़ा बल शब्द जीव के वीर्य गुण का परिचायक है, वर्तमान में शक्ति का क्षयोपशम वीर्य गुण की योग्यता है। अशुद्ध निश्चयनय से जीव उस (बल) वीर्य प्राण से जीता है। आयु एवं श्वासोच्छ्वास यद्यपि जड़ हैं; परन्तु जीव अपनी तत्समय की योग्यता और इन दोनों प्राणों के निमित्त से जीवित रहता है। द्रव्येन्द्रियाँ भी जड़ हैं तथा भावेन्द्रियाँ जीव की क्षयोपशमरूप योग्यता है। उपर्युक्त चारों प्राणों में जो चैतन्यपरिणति है, वह भाव प्राण है और उनके साथ जो पुद्गल की उसरूप परिणति है, वह द्रव्य प्राण है। वास्तव में तो जीव स्वयं सुख, सत्ता, चैतन्य, बोध ह्न इन चार त्रिकाली प्राणों से जीता है और पर्याय में भावप्राण से व निमित्तरूप द्रव्यप्राण से जीता है ह्र इसप्रकार सबका ज्ञान कराना ही यथार्थ ज्ञान है।
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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