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________________ गाथा-२८ विगत गाथा में कहा गया है कि ह्र संसारी जीव चेतयिता, उपयोग लक्षित, प्रभु, कर्ता, भोक्ता, देहप्रमाण, अमूर्त और कर्म संयुक्त है। अब प्रस्तुत गाथा में कहते हैं कि ह्र सिद्धपद प्राप्त आत्मा निरुपाधि, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी होकर अतीन्द्रिय आनंद का अनुभव करता है। मूल गाथा इसप्रकार है। कम्ममलविप्पमुक्को उड्ढं लोगस्स अन्तमधिगंता। सो सव्वणाणदरिसी लहदि सुहमणिंदियमणंतं ।।२८।। (हरिगीत) कर्म मल से मुक्त आतम मुक्ति कन्या को वरे। सर्वज्ञता समदर्शिता सह अनन्तसुख अनुभव करे||२८|| कर्ममल से मुक्त आत्मा लोक के अन्त को प्राप्त करके सर्वज्ञ-सर्वदर्शी होकर अनन्त अतीन्द्रिय सुख का अनुभव करता है। ___आचार्य अमृतचन्द्र टीका में कहते हैं कि ह्र आत्मा जिस क्षण कर्मरज से सम्पूर्णरूप से छूटता है, उसी क्षण अपने ऊर्ध्वगमन स्वभाव के कारण लोक के अन्त को पार कर आगे गतिहेतु का अभाव होने से लोकाग्र में ही स्थिर हो जाता है तथा सर्वज्ञता एवं समदर्शिता के साथ अतीन्द्रियसुख का अनुभव करता है। उस मुक्त आत्मा को भावप्राण धारणरूप जीवत्व' होता है, चिद्रूप लक्षणभूत 'चेतयित्व' होता है, चित्परिणामस्वरूप 'उपयोगमयत्व' होता है। समस्त शक्तिमय होने से प्रभुत्व' होता है। निजस्वरूप के रचनेरूप 'कर्तृत्व' होता है। सुख की उपलब्धिरूप भोक्तृत्व' होता है, अन्तिम शरीर के अनुसार अवगाह परिणामरूप देहप्रमाणपना' होता है तथा उपाधिसंबंध से सर्वथा रहित होने से अर्मूतपना' होता है । मुक्त आत्मा को कर्मसंयुक्तपना जीव द्रव्यास्तिकाय (गाथा २७ से ७३) ११७ तो कदापि नहीं होता; क्योंकि वह द्रव्यकर्मों एवं भावकों से विमुक्त हो गया है। आचार्य जयसेन कहते हैं कि ह्न उपर्युक्त नौ अधिकारों में से सिद्ध जीव की दृष्टि से संयुक्तता को छोड़कर शेष आठ अधिकारों में आगम के अविरोध पूर्वक घटित कर लेना चाहिए; जबकि आचार्य अमृतचन्द्रदेव ने आठों को विश्लेषित करके स्पष्ट किया है। सर्वज्ञ और सर्वदर्शित्व की प्रगटता के हेतुओं का प्रतिपादन कर भोक्तृत्व का स्पष्टीकरण अस्तिनास्ति से किया है। कवि हीरानन्दजी ने उक्त विषय को अपने काव्य में इसप्रकार कहा है ह्र (दोहा) सरव करम-मलरहित निज, उर्द्धलोककै अंत । सर्वग्यानदरसी सुखी, इंद्रियरहित अनंत ।।१६०।। (सवैया इकतीसा) भाव-दरव-करममलसौं वियोग भयौ, ऊरध सुभावगति लोक अंत वासी है। धरमदरव बिना आगै गतिका अभाव, ताहीतैं मुगति माहिं चेतना विलासी है।। सुद्ध ग्यानदरसमैं लोकालोक भासमान, केवल सुछंद आपरूप अविनासी है। इंद्रिय-रहित-सुख अनुभौ अनंतकाल, एकरूप निराबाध सिद्ध मोखवासी है ।।१६१।। उक्त पद्यों का सारांश यह है कि मुक्त जीव सर्व कर्ममल से रहित हैं। उर्ध्वलोक के अन्त में रहते हैं, सर्वज्ञ-सर्वदर्शी, अनन्तसुखी और इन्द्रिय रहित अनन्तकाल तक विराजमान रहते हैं। उक्त सवैया में कर्ममल के भेद बताते हुए कहा है कि मुक्त जीवों के द्रव्यकर्म व भावकर्म का अभाव हो गया है, उर्ध्वगमन स्वभाववाले हैं (67)
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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