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________________ पञ्चास्तिकाय परिशीलन उत्तर :- जिसतरह एक लम्बे बांस के निम्न भाग को हिलाने मात्र से उसके ऊपर का भाग स्वयं हिलता है तथा जिसतरह रसना के द्वारा स्वादिष्ट वस्तु के चखने से सम्पूर्ण आत्मप्रदेशों में सुखानुभव होता है, उसी प्रकार लोकाकाश में विद्यमान कालद्रव्य अलोकाकाश में भी निमित्त बनता है; क्योंकि आकाशद्रव्य अखण्ड है, एक है। यहाँ यह ध्यान रखने की बात है कि कालद्रव्य किसी द्रव्य के परिणमन का कर्ता नहीं है, स्वतंत्रता से स्वयमेव परिणमित होनेवाले द्रव्यों को बाह्य निमित्तमात्र है। " १०० आचार्य जयसेन ने प्रश्न उठाया है और स्वयं समाधान भी प्रस्तुत किया है कि कालद्रव्य अन्य द्रव्यों को परिणमाने में निमित्त है ह्न यह तो ठीक है; परन्तु कालद्रव्य के परिणमन में कौन-सा द्रव्य निमित्त है ? उत्तर स्वरूप वे स्वयं ही कहते हैं कि ह्न “जिसतरह आकाशद्रव्य दूसरे द्रव्यों के आधार के साथ स्वयं का भी आधार है तथा जिसप्रकार ज्ञान, सूर्य, रत्न और दीपक स्व-परप्रकाशक है, उसीप्रकार कालद्रव्य दूसरे द्रव्यों के साथ स्व के परिणमन में भी सहकारीकारण है। कविवर हीरानन्दजी ने उपर्युक्त भाव को इसप्रकार कहते हैं ह्र (दोहा) पंच वरन रस गंध दुअ, आठ फरस बिन टाल । अगुरुलघुक मूरति बिना, वरतन लच्छन काल ।। १४५ ।। ( सवैया इकतीसा ) जैसें सीतकाल विषै कोऊ नर पाठ करै, अपनै सुभाव ताक आग का सहारा है । जैसें कुंभकारचक्र अपने सुभाव भ्रमै, पै पर दंड कीलीनै भ्रमीक सहारा है । तैसें पाँचों द्रव्य विषै परिनाम नित्य ताकौ, निचै काल अनूनै नीकैकै विचारा है । (59) कालद्रव्य का स्वरूप (गाथा १ से २६) सोई काल अनूरूप वरतना लच्छिन है, १०१ मूरत बिना ही सारे जगमैं निहारा है ।। १४६ ।। ( चौपाई ) अब जो तरक करै कोउ ऐसैं, नभ अलोकमैं परिनत कैसें । ताकी संबोधन कछु जैसी, ग्रंथविषै अनुभौ सुनु तैसौ ।। १४७ ।। (सवैया इकतीसा ) जैसैंके परस इंद्री एक जागा परसेंतैं, परस का विषै स्वाद सारे अंग व्यापै है । जैसे साँप काटे और व्रन आदि एक अंग, सबै अंग दुखी होड़ जीव परलापै है ।। तैसें लोकमध्य काल अपने सुभाव सेती, सबही अलोक मध्य परिनाम साधै है । काल तौ सहायकारी परिनामधारी नभ, वस्तु का सरूप तातैं वस्तुमाहिं आप है ।। १४८ ।। उक्त छन्दों में कहा है कि ह्न जैसे कोई शीतकाल में स्वतः पढ़ता है तो अग्नि उसमें सहायक बन जाती है, जब कुम्हार का चक्र स्वतः घूमता है, तो कीली उसका सहारा बन जाती है, उसीप्रकार पाँचों द्रव्य जब अपने स्वभाव से परिणमन करते हैं, तब कालद्रव्य उनमें निमित्त बनता है। उपर्युक्त १४७वें छन्द में प्रश्न उठाया है कि ह्न लोक का द्रव्य अलोकाकाश के परिणमन में कैसे निमित्त बनता है? समाधान १४८वें छन्द में किया है। उसमें कहा है कि जैसे एक अंग में कांटे के स्पर्श से सम्पूर्ण स्पर्शन् इन्द्रिय में पीड़ा होती है तथा सर्प दंश एक अंग में होता है और पूरा शरीर दुखता है, उसीप्रकार आकाशद्रव्य अखण्ड होने से लोक का कालद्रव्य अलोक के परिणमन में निमित्त बन जाता है।"
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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