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________________ गाथा - १९ विगत गाथा में यह कहा है कि ह्न यद्यपि यह सत्य है कि जीव जन्म लेता है और मरता है; परन्तु ऐसा पर्याय की अपेक्षा कहा जाता है । द्रव्यरूप से जीव न जन्म लेता है, न मरता है। अब प्रस्तुत गाथा में कहते हैं कि सर्वथा असत् का उत्पाद व सत्का विनाश नहीं होता। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र एवं सदो विणासो असदो जीवस्स णत्थि उप्पादो। तावदिओ जीवाणं देवो मणुसोत्ति गदिणामो ।। १९ । । (हरिगीत) इस भाँति सत् का व्यय नहिं अर असत् का उत्पाद नहिं । गति नाम नामक कर्म से सुर-नर-नरक ह्न ये नाम हैं ।। १९ ॥ इस गाथा में जो यह कहा गया है कि जीव को सत् का विनाश और असत् का उत्पाद नहीं है ह्न वह ध्रुवता की अपेक्षा कहा है तथा देव जन्मता है और मनुष्य मरता है ह्न ऐसा जो कहा, वह पर्याय की अपेक्षा कहा है और उस समय निमित्तरूप मनुष्य गति नामकर्म भी उतने ही काल का होता है। टीकाकार आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं कि ह्र ध्रुवपने की अपेक्षा जो जीव मरता है, वही जन्मता है और जो जीव जन्मता है, वही मरता है। सत् का सर्वथा विनाश और असत् का नया उत्पाद नहीं होता है। देव जन्मता है तथा मनुष्य मरता है ऐसा जो कहा जाता है वह कथन भी अविरुद्ध है; क्योंकि मर्यादित काल की देवपर्याय और मनुष्यपर्याय को (49) असत का उत्पाद सत् का विनाश नहीं होता ( गाथा १ से २६ ) ८१ रचनेवाले देवगति नामकर्म और मनुष्यगति नामकर्म मात्र निमित्तरूप में उतने काल तक ही होते हैं। इसप्रकार पूर्वोक्त तीन गाथाओं में किए गए पर्यायर्थिकनय के व्याख्यान द्वारा मनुष्य - नारकादि रूप से उत्पाद - विनाशत्व घटित होता है; तथापि द्रव्यार्थिकनय से सत / विद्यमान जीव द्रव्य का विनाश और असत् / अविद्यमान जीव द्रव्य का उत्पाद नहीं है। कविवर हीरानन्दजी इसी बात के समर्थन में कहते हैं ह्र (दोहा) सत-विनास नहिं होत है, असत न उपजै राम । जीव विसै सुर-नर लसै, देव-मनुष गति नाम ।। ( सवैया इकतीसा ) जैसे बाँसदंड एक तामैं गाँठ हैं अनेक, आप आप सीमा विषै अस्तिभाव आया है। आन गाँठि विषै आन गाँठि का अभाव लसै, बाँस दंड एक सबै गाँठिमैं समाया है । गाँठि के अभाव विषै दंडका अभाव नाहिं, तैसें के परजै माहिं द्रव्यरूप गाया है। दरव है नित्य एक परजै अनित्य नैक, नयकै विलासमध्य वस्तुतत्त्व पाया है ।। कवि हीरानन्दजी के उक्त दोनों काव्यों में कहा है कि ह्र 'सत् वस्तु का विनाश नहीं होता और असत् वस्तु उत्पन्न नहीं होती। जीव की अवस्था में ही गति नामकर्म के निमित्त से देव व मनुष्यादि पर्यायें होती हैं।' " जैसे एक बांस के अनेक गाँठें होती हैं, वे सभी गाँठें अपनी-अपनी मर्यादा में रहती हैं। एक गाँठ में दूसरी गाँठ का अभाव रहता है तथा बांस दण्ड सम्पूर्ण गांठों में व्याप्त हैं।'
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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