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________________ ४४ पञ्चास्तिकाय परिशीलन निष्कर्ष यह है कि ह्न अवान्तरसत्ता और महासत्ता की सिद्धि करके आचार्यदेव ने श्रुतज्ञान में अनन्त केवलज्ञान को समा दिया है। "देखो, श्रुतज्ञान महासत्ता और अवान्तरसत्ता ह दोनों को जानता है और महासत्ता के अन्तर्गत अनन्त केवली और केवलज्ञान का सम्पूर्ण विषय अर्थसमय के रूप में आ जाता है तथा अवान्तरसत्ता में वे अनन्त केवली और उनके केवलज्ञान के विषयभूत पदार्थ भिन्न-भिन्न हैं ह ऐसा भी श्रुतज्ञान जान लेता है। ऐसे सम्यक् श्रुतज्ञान द्वारा ज्ञानी जीवों की परिणति स्वतः स्वभावसन्मुख होकर वीतरागभावरूप होने लगती है; क्योंकि सम्यक श्रुतज्ञान से ऐसे स्वतंत्र वस्तुस्वरूप के यथार्थ निर्णय से ज्ञानी जीवों का कर्तृत्वभोक्तृत्व समाप्त हो जाता है। वे जगत के ज्ञाता-दृष्टा रह जाते हैं।" इसप्रकार इस गाथा में वस्तु को उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक बताते हुए महासत्ता एवं आवान्तर सत्ता के स्वरूप को विस्तार से समझाया है। गाथा ९ पिछली गाथा में उत्पाद-व्यय ध्रौव्यात्मक, एक, सर्वपदार्थ स्थित, सविश्वरूप और अनन्त पर्यायमय सत्ता का स्वरूप कहा और अब नवीं गाथा में द्रव्य का स्वरूप बताते हैं। मूलगाथा इसप्रकार है। दवियदि गच्छदि ताई ताई सब्भावपजयाई जं। दवियं तं भण्णंते अणण्णभूदं तु सत्तादो ।।९।। (हरिगीत) जो द्रवित हो अर प्राप्त हो सद्भाव पर्ययरूप में। अनन्य सत्ता से सदा ही वस्तुत: वह द्रव्य है।।९।। "उन-उन सद्भाव पर्यायों रूप जो द्रवित होता है, प्राप्त होता है, उसे द्रव्य कहते हैं, जो कि सत्ता से अनन्य हैं।" आचार्य अमृतचन्द्र टीका में कहते हैं कि “यहाँ सत्ता को और द्रव्य को अर्थान्तरपना होने का खण्डन है; भिन्न पदार्थपने का खण्डन है।" जो उन-उन क्रमभावी और सहभावी स्वभाव पर्यायों को द्रवित होता है, प्राप्त होता है, उसे द्रव्य कहते हैं। _ "जो सामान्यरूप से स्वरूप से व्याप्त होता है तथा क्रमभावी और सहभावी सद्भाव पर्यायों को प्राप्त होता है अर्थात् स्वभाव विशेषों को जो द्रवित होता है ह्र प्राप्त होता है, वह द्रव्य है।" "यद्यपि लक्ष्य-लक्षण के भेद द्वारा द्रव्य को सत्ता से कथंचित् भेद है, अन्यपना है; तथापि वस्तुत: परमार्थतः द्रव्य सत्ता से अभेद अर्थात् अपृथक् ही है।" इसलिए पहले सत्ता को जो सत्पना-असत्पना, त्रिलक्षणपनाअत्रिलक्षणपना, एकपना-अनेकपना सर्व पदार्थ स्थितपना -एकपदार्थ स्थितपना, विश्वरूपपना-एक रूपपना, अनन्तपर्यायमयपना यद्यपि जीवराज कर्मकिशोर का जनम-जनम का साथी है, दोनों में अत्यन्त घनिष्ठता है; परन्तु जीवराज यदि कोई अपराध (पाप) करता है तो कर्मकिशोर स्वभाव के अनुसार उसे दण्ड देने से भी नहीं चूकता और यदि वह भले काम करता है तो उसे पुरस्कृत भी करता और उसे लौकिक सुखद सामग्री दिलाने में कभी पीछे नहीं रहता। कोई कितना भी छुपकर गुप्त पाप करे अथवा भले काम करते हुए उनका बिल्कुल भी प्रदर्शन न करे तो भी कर्मकिशोर को पता चल ही जाता है। कहने को वह जड़ है; पर पता नहीं, उसे कैसे पता चल जाता है, उसके पास ऐसी कौनसी सी.आई.डी. की व्यवस्था है, कौनसा गुप्तचर विभाग सक्रिय रहता है, जो उसे जीव के सब अच्छे-बुरे कार्यों की जानकारी दे देता है? - नींव का पत्थर, पृष्ठ-९ (31) १. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं .......... दिनांक ..........., पृष्ठ .....
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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