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________________ ४९० पञ्चास्तिकाय परिशीलन गुरुदेव श्रीकानजी स्वामी अपने व्याख्यान में कहते हैं कि ह वीतरागी सर्वज्ञ भगवान के प्रति भक्ति का भाव यद्यपि पुण्य-बंध का कारण है, तथापि ज्ञानी को भक्ति का भाव आये बिना रहता। अरहंत, सिद्ध, चैत्यालय, जिनप्रतिमा, जिन प्रवचन एवं मुनिराजों के प्रति भक्ति एवं आदर का भाव धर्मी जीव को आये बिना नहीं रहता; परन्तु वह जानता है कि ह्र यह राग परद्रव्य के अवलम्बन से होनेवाला है, अत: यह धर्म नहीं है। यद्यपि जिनप्रतिमा पर हुआ रागभाव भी बंध का कारण है; पर इससे शुभराग में निमित्तभूत जिनप्रतिमा के प्रति भक्तिभाव का निषेध नहीं हो सकता। धर्मी को शुभराग होने पर जिनप्रतिमा की भक्ति-पूजा का भाव आता ही है; परन्तु धर्मी राग से धर्म होना नहीं मानता तथापि शुभराग के निमित्तभूत जिनेन्द्र प्रतिमा की उत्थापना भी नहीं करता। धर्मी जीव राग को मोक्षमार्ग नहीं मानते । मोक्षमार्ग तो एक वीतराग भाव ही है। ऐसा जानते हुए भी धर्मी जीवों को भूमिकानुसार आत्मभानपूर्वक देव-शास्त्र-गुरु के प्रति प्रमोदभाव, भक्ति का भाव आये बिना नहीं रहता।१" __इसप्रकार इस गाथा में यह कहा है कि - शुभभाव में निमित्तभूत अरहंत की प्रतिमायें, प्रवचन और मुनिगणों एवं ज्ञानवृद्ध एवं वय और संयम-साधना में वृद्ध ज्ञानियों के प्रति भक्तिभाव रखने वाले जीव पुण्य बहुत बाँधते हैं, परन्तु उन्हें कर्मक्षय नहीं होता । गुरुदेव श्री ने भी इसी प्रकार का भाव व्यक्त करते हुए मोक्षमार्ग में शुभभाव की उपयोगिता भी बताई और साथ ही उस मोक्षमार्ग में शुभभाव से ऊपर उठने की प्रेरणा भी दी। गाथा -१६७ विगत गाथा में कहा गया है कि अरहंत सिद्ध और उनकी प्रतिमा की पूजा एवं प्रवचन आदि से भक्त पुण्य तो बहुत कमाते हैं, परन्तु कर्मों का क्षय नहीं करते। अब प्रस्तुत गाथा में कहते हैं कि स्व-समय की उपलब्धि न हो पाने का कारण एकमात्र राग है। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र जस्स हिदएणुमेत्तं वा परदव्वम्हि विज्जदे रागो। सो ण विजाणदि समयं सगस्स सव्वागमधरो वि।।१६७।। (हरिगीत) अणुमात्र जिसके हृदय में परद्रव्य के प्रति राग है। हो सर्व आगमधर भले जाने नहीं निजआत्म को।।१६७|| जिसे परद्रव्य के प्रति अणुमात्र भी, लेशमात्र भी राग हृदय में विद्यमान है, वह भले ही सर्व आगम का पाठी हो, तथापि स्वकीय समय को नहीं जानता, आत्मा का अनुभव नहीं करता। आचार्य श्री अमृतचन्द्र समय व्याख्या टीका में कहते हैं कि ह्रस्वसमय की उपलब्धि न होने का एकमात्र कारण 'राग' है। रागरूपी धूल का एक कण भी जिसके हृदय में विद्यमान है, वह भले ही समस्त सिद्धान्त शास्त्रों का पारंगत हो, तथापि निरूपराग अर्थात् शुद्धस्वरूप निर्विकारी स्वरूप को नहीं चेतता, आत्मा के शुद्ध स्वरूप का अनुभव नहीं करता। इसलिए ‘धुनकी (यंत्र) से चिपकी हुई रुई' का न्याय लागू होने से अर्थात् जिसप्रकार धुनकी यंत्र से चिपकी हुई थोड़ी सी भी रुई धुनने के कार्य में विघ्न करती है, उसीप्रकार थोड़ा भी राग स्वसमय (254) १. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं.२३०, दिनांक ९-६-५२, पृष्ठ १८६६-६७
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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