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________________ ४७७ गाथा - १६२ विगत गाथा में व्यवहार मोक्षमार्ग के साधन द्वारा साध्यरूप से निश्चयमोक्षमार्ग का कथन किया। ___अब प्रस्तुत गाथा में आत्मा के चारित्र-ज्ञान-दर्शन का प्रकाश करते हैं। मूल गाथा इसप्रकार है ह्न जो चरदिणादि पेच्छदि अप्पाणं अप्पणा अणण्णमयं। सो चारित्तं णाणं दंसणमिदि णिच्छिदो होदि।।१६२।। (हरिगीत) देखे जाने आचरे जो अनन्यमय निज आत्म को। वे जीव दर्शन-ज्ञान अर चारित्र हैं निश्चयपने ||१६२।। जो जीव अनन्यमय आत्मा को आत्मा से आचरता है, जानता है, देखता है; वह आत्मा ही चारित्र है, ज्ञान है, दर्शन है ह्र ऐसा यहाँसमझाया है। आचार्य श्री अमृतचन्द्र कहते हैं कि “यह आत्मा के चारित्रज्ञानदर्शनपने का प्रकाशन है। जो जीव वास्तव में अनन्यमय आत्मा को आत्मा से जानता है। उसे आत्मा से आचरता है, स्वभाव में दृढ़रूप में स्थित अस्तित्व द्वारा अनुवर्तत है। अर्थात् स्वभावनियत अस्तित्वरूप से परिणमित होकर अनुसरता है, स्व-पर-प्रकाशकरूप से चेतता है, अनन्य आत्मा को आत्मा से देखता है अर्थात् यथातथ्य रूप से अवलोकता है; वह आत्मा ही वास्तव में चारित्र है, ज्ञान है, दर्शन है ह्र ऐसा कर्ता-कर्म-करण के अभेद के कारण निश्चित है। इससे ऐसा निश्चित हुआ कि चारित्र-ज्ञान-दर्शनरूप होने के कारण आत्मा को जीवस्वभाव नियत चारित्र जिसका लक्षण है ह्र ऐसा निश्चय अथ मोक्षमार्ग प्रपञ्च चूलिका (गाथा १५४ से १७३) मोक्षमार्गपना अत्यन्त घटित होता है। अर्थात् आत्मा ही चारित्र-ज्ञानदर्शन होने के कारण आत्मा ही ज्ञान-दर्शनरूप जीवस्वभाव में दृढ़रूप से स्थित चारित्र जिसका स्वरूप है ह ऐसा निश्चय मोक्षमार्ग है। इसी बात को कवि हीरानन्दजी काव्य में कहते हैं ह्र (दोहा ) देखे जाने अनुचरै, जो आपन कौं आप । सो दृग-ग्यान-चरित्र पद, निहचै पर न मिलाप।।२१८ ।। (सवैया इकतीसा) आप माहिं आपरूप पर माहिं पर तातें, ग्यानी आप माहिं चरै आपरूप जानि कै। स्व-पर प्रकास पुंज अपना सरूप जाने, आप रूप जैसा तैसा देखै आप मानिकै।। तातें है चरित आप ग्यान दृग औमिलाप, कर्ता-कर्म-करन की पद्धति पिछान कै। भेदभाव त्यागि निरभेद-सुधा पान करि, सुद्ध मोख पन्थी होइ कर्मपुंज भानि कै।।२१९ ।। (दोहा) दरसन मैं दरसन लसै, ग्यान माहिं फुनि ग्यान । चारित मैं चारित भला, तीनौं समरस भान।।२२० ।। कवि हीरानन्दजी काव्य में कहते हैं कि - जो पर से भिन्न स्वयं का सामान्य अवलोकन करे, अपने स्वरूप को विशेषरूप से जानें तथा उसी में रमे, यही निश्चय सम्यग्दर्शन, ज्ञान व चारित्र का स्वरूप है। ज्ञानी निज आत्मा सम्यक् प्रतीतिपूर्वक स्व-पर का भेद विज्ञान करके स्वयं में स्थिर होते हैं। इसप्रकार ज्ञानी कर्ता-कर्म आदि के स्वरूप को पहचान करके (247)
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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