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________________ अथ मोक्षमार्ग प्रपञ्च चूलिका गाथा - १५४ विगत गाथा में द्रव्य मोक्ष के स्वरूप का कथन है। अब प्रस्तुत गाथा में मोक्षमार्ग के स्वरूप का कथन है। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र जीवसहावं णाणं अप्पडिहददंसणं अणण्णमयं । चरियं च तेसु यिदं अत्थित्तमणिदियं भणियं । । १५४ । । (हरिगीत) चेतन स्वभाव अनन्यमय निर्बाध दर्शन-ज्ञान है। ज्ञानस्थित अस्तित्व ही चारित्र जिनवर ने कहा || १५५|| जीव का स्वभाव अप्रतिहतदर्शन ज्ञानमय है, जोकि जीव से अनन्यमय है। उन ज्ञान-दर्शन में नियत अस्तित्वमय है और जो अनिंदित है, उसे चारित्र कहा है। आचार्य श्री अमृतचन्द्र कहते हैं कि ह्न यह मोक्षमार्ग के स्वरूप का कथन है। जीवस्वभाव में नियत चारित्र मोक्षमार्ग है। जीव स्वभाव वास्तव में ज्ञान - दर्शनमय हैं; क्योंकि वे ज्ञान-दर्शन जीव से अनन्य हैं। ज्ञानदर्शन का जीव से अनन्यपना होने के कारण यह है कि वे विशेष चैतन्यमय दर्शन जीव से निष्पन्न हैं । अर्थात् जीव द्वारा ज्ञान दर्शन रचे गये हैं। अब कहते हैं कि ह्न जीव के स्वरूपभूत ज्ञान दर्शन में स्थित (स्थित) जो उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप वृत्तिमय (होने रूप) अस्तित्व रागादि परिणाम के अभाव के कारण अनिंदित है, वह चारित्र है, वही मोक्षमार्ग है। संसारी जीवों में चारित्र दो प्रकार का है - १. स्वचारित्र २. पर चारित्र । स्वभाव में स्थित स्वचारित्र है और परभाव में स्थित परचारित्र है। स्वभाव में स्थित चारित्र अनिन्दित है। यह साक्षात् मोक्षमार्ग रूप है। (236) अथ मोक्षमार्ग प्रपञ्च चूलिका (गाथा १५४ से १७३) कवि हीरानन्दजी काव्य में उक्त गाथा भाव स्पष्ट करते हैं ह्र ( सवैया इकतीसा ) सामानि - विसेष रूप चेतना स्वरूप जीव, ग्यान - दृग दोनों भेद अजुत विचारना । इनही में नियत है उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य, बृत्तिरूप अस्तिताई राग आदि टारना ।। क्रम तैं अनिंदित है चारित अमंद रूप, ४५५ मोख पंथ नीका लसै आप मैं निहारना । याही पंथ मोखपंथी गये हैं गिरंथी कहै, अब भी जो जाया चाहै ताकौ इहै धारना । । १८५ ।। कवि कहते हैं कि जीव की चेतना के दो प्रकार हैं- १. सामान्य २. विशेष । दोनों को दर्शन- ज्ञान के रूप में जानना। इनमें ही उत्पादव्यय - ध्रौव्य है। जीव स्वभाव में नियत चारित्र ही मोक्षमार्ग है। अब इसी गाथा के भाव को स्पष्ट करते हुए गुरुदेव श्री कानजीस्वामी अपने व्याख्यान में कहते हैं कि ह्न आत्मा शुद्ध स्वभावी है, उसे जीवतत्त्व मानना, पुण्य को विकार मानना, जड़ द्रव्यों के जड़ जानना इसप्रकार प्रत्येक पदार्थ के द्रव्य-गुण-पर्याय जैसे हैं, वैसी पहचान करके जानना ह्र ऐसा ज्ञान का स्वभाव है। 'यह जड़ है, यह चेतन है' ह्र ऐसा भेद किए बिना सामान्यपने देखना दर्शन है तथा भेद करके जानना ज्ञान है। दोनों का एक नाम 'चैतन्य' है । वह जीव का असाधारण लक्षण है। जानना देखना जीव का स्वभाव है। देव-शास्त्र-गुरु के प्रति राग होना पाँच महाव्रत का राग होना आत्मा का असली स्वभाव नहीं है। जीव तो उनका भी ज्ञाता ही है। इसप्रकार निमित्त एवं पुण्य-पाप की रुचि छोड़े बिना तथा ज्ञान-दर्शन स्वभाव से आत्मा की दृष्टि हुए बिना धर्म नहीं होता । जैसा वस्तु का स्वभाव है, वैसा ही सर्वज्ञ ने देखा है, वही उनकी
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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