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________________ ४५० पञ्चास्तिकाय परिशीलन एवं दर्शनावरण के क्षयवाली होने के कारण, शुद्ध ज्ञानचेतनामय होने से तथा इन्द्रिय व्यापारादि बर्हिद्रव्य के अवलम्बन रहित होने से अन्य द्रव्य के संसर्ग रहित है और शुद्ध स्वरूप में निश्चल चैतन्य परिणति रूप होने से किसी प्रकार 'ध्यान' नाम के योग्य है। उनकी ऐसी आत्मदशा का निर्जरा रूप से वर्णन किया जाता है; क्योंकि उन्हें पूर्वोपार्जित कर्मों की शक्ति हीन होती जाती है तथा वे कर्म खिरते जाते हैं। (दोहा) आन दरब संयुक्त नहिं, दृष्टि ज्ञानयुत ध्यान । भाव सहित मुनिराज कौं, निर्जर हेतु बखान।।१७६ ।। (सवैया इकतीसा) भावमुक्त भगवान केवली स्वरूप तृप्त, तातें सुख-दुख-कर्म विक्रिया की समता। खीन आवरन तातै ग्यान-दर्सन समूह, चेतना ममत्व आन द्रव्य नाहिं गमता ।। सुद्ध रूप विषै अविचलित चेतना तात, ध्यान नाम पावै सदा आप रूप रमता। पूर्व कर्म-सक्ति नासै निर्जरा सरूप भासै, तातें द्रव्यमोख पावै, रहै न लोक ममता।।१७७ ।। (दोहा ) दरब मोख का हेतु है, परम निर्जरा हेतु । ध्यान नाम तातें कह्या, पुरुषारर्थ संकेत।।१७८ ।। उपर्युक्त दोहे में कहा है कि “जो अन्य द्रव्यों से संयुक्त नहीं है, ऐसे मुनिराजों के अर्थात् सर्वज्ञदेव के सम्यग्दर्शन ज्ञान सहित एवं अन्यद्रव्य के ध्यान से रहित जो आत्मध्यान होता है वह निर्जरा का कारण है। सवैया इकतीसा में इसी की पुष्टि में कहते हैं कि भावयुक्त केवली भगवान का आवरण क्षीण हो गया है, इसकारण चेतना का ममत्व पर में नहीं रहा । शुद्धस्वरूप में ही अविचल चेतना है, इसलिए अपने में रमणता ध्यान सामान्य (गाथा १५२ से १५३) ४५१ का नाम ही ध्यान कहा जाता है। इससे अघातिया कर्मों की शक्ति भी होती जाती है, द्रव्य निर्जरा के साथ द्रव्य मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं। इसप्रकार उनका आत्मध्यान द्रव्य मोक्ष एवं परम निर्जरा का हेतु होता है। अब गुरुदेव श्री कानजीस्वामी अपने व्याख्यान में कहते हैं कि ह्र "आत्मा अखण्ड परिपूर्ण शुद्ध चैतन्य है। उसका सामान्य से देखना दर्शन है तथा विशेष जानना ज्ञान है। सर्वज्ञ भगवान के ज्ञान दर्शन में एक साथ परिपूर्णता है। दर्शन ज्ञान में अपूर्णता नहीं है। भगवान के अनन्त चतुष्टय प्रगट हुए हैं। इसकारण उनको परद्रव्य की चिन्ता के निरोध रूप परम ध्यान होता है तथा वह ध्यान चार अघाती कर्मों की निर्जरा का कारण है। स्वरूप अनुभव की अपेक्षा से केवली भगवान को उपचार से ध्यान कहा है। पूर्व में बंधे कर्म समय-समय पर खिरते जाते हैं, इस अपेक्षा से उनके ध्यान को निर्जरा का कारण होता है ह्र ऐसा कहते हैं। __अरहंत परमेश्वर अपने अखण्ड चैतन्य स्वरूप में प्रवर्तते हैं। भेद किये बिना निर्विकल्प रस का अनुभव करते हैं। इस कारण से कथंचित् प्रकार से वे अपने स्वरूप के ध्यानी हैं। ऐसा उपचार से कहा जाता है। इसप्रकार जब आत्मा विकारी परिणाम से मुक्त होकर केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है, तब केवली भगवान अपने स्वरूप के आत्मिक सुख से तृप्त रहते हैं।" इस तरह इस गाथा में यही कहा है कि - केवली भगवान अपने में समग्र रूप से एकाग्र होते हैं तथा पूर्वकर्म समयानुसार क्षय होते जाते हैं। जो अबतक अघाती कर्मों के निमित्त से अपने प्रतिजीवों गुणों में अशुद्धता थी, जब भगवान उसका भी नाश करते हैं, वह उनका द्रव्य मोक्ष है। (234) १. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. २१६, दि. २५-५-५२, पृष्ठ-१७४७
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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