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________________ पञ्चास्तिकाय परिशीलन यहाँ जिस भाव का कथन करना है, वह भाव वास्तव में संसारी को अनादि काल से मोहनीय कर्म के उदय के कारण अशुद्ध है, द्रव्य कर्मास्रव का हेतु हैं; परन्तु वह ज्ञप्ति क्रिया रूप भाव ज्ञानी को मोह-राग-द्वेष परिणति की हानि को प्राप्त होता है, इसलिए उसको आस्रव भाव का निरोध होता है। ४४६ जिसे आस्रव भाव का निरोध हुआ है, उस ज्ञानी को मोह क्षय द्वारा अत्यन्त निर्विकारपना होने से जो अनादिकाल से अनन्त चैतन्य और अनंतवीर्य मुँदा (ढँका) हुआ था, वह ज्ञानी क्षीण मोह गुण स्थान में शुद्ध ज्ञप्ति क्रिया रूप से अन्तर्मुहूर्त व्यतीत करके युगपद ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय का क्षय होने से कथंचित् कूटस्थ ज्ञान को प्राप्त करता है। इसप्रकार उसे ज्ञप्ति क्रिया के रूप में क्रम प्रवृत्ति का अभाव होने से भावकर्म का विनाश होता है। इसलिए कर्म का अभाव होने पर वह वास्तव में भगवान सर्वज्ञ, सर्वदर्शी तथा इन्द्रिय व्यापार रहित, अव्याबाध अनन्त सुखवाला सदैव रहता है। इसप्रकार यह भाव मोक्ष का स्वरूप है तथा द्रव्य मोक्ष का हेतुभूत परम संवर का स्वरूप है। कवि हीरानन्दजी ने प्रस्तुत १५० - १५१ गाथाओं पर काव्य के रूप में जो लिखा है वह इसप्रकार है। ( दोहा ) आस्रव हेतु अभाव तैं, ग्यानी आस्रव रोध । आस्रवबिन सब करम का, सहजै होई निरोध । । १६५ ।। ( सवैया इकतीसा ) संसारी अनादि मोहकर्म आवरित ग्यान, क्रमरूप वर्तमान अविशुद्ध सगरा । सोई राग-द्वेष- मोह भावरूप आस्रव है, ग्यानी कै अभाव भये मिटे मोह झगरा ।। (232) मोक्ष पदार्थ (गाथा १५० से १५१ ) तातैं द्रव्य आस्रव का आसरा निराला भया, ज्ञानदृष्टि आवरन घातकर्म सगरा । सर्वग्यानी सर्वदर्शी इन्द्रिय रहित सुद्ध, ४४७ अव्याबाध सुख अनंत पावै मोक्ष नगरा । । १६७ ।। (चौपाई ) आस्रव हेतु जीव के सारे राग-द्वेष अरु-मोह निवारे । तिनकालसै अभाव सुहाया, ग्यानी जियकै जैन बताया । । १७० ।। तातैं भावास्रव जब भासा द्रव्यास्रव तब सहज विनासा । जब कारण का भया निवारा, तब कारज का कौन सहारा ।। १७१ ।। जबहि करन अभाव कहावै, तब केवल पद सहजहिं पावै । जिन सरवग्य सरवदरसी हैं, सुख अनन्त केवल परसी है । । १७२ ।। (दोहा) भेदग्यान सौं मुगति है, जुगति करौ किन कोई । वस्तु भेद जाने ही मुगति कहाँ से होइ । । १७५ ।। कवि हीरानन्द कहते हैं कि आस्रव के हेतुओं के अभाव के आस्रव का निरोध हो जाता है। आस्रव के अभाव से शेष सब कर्मों का भी सहजनिरोध हो जाता है। संसारी जीव अनादिकाल से मोहकर्म से ढँके हैं, इससे वर्तमान में मलिन है। वही मोह राग-द्वेष भाव आस्रव है। ज्ञानी के इनका अभाव होने से मोह का झगड़ा मिटाया है। इस कारण द्रव्य आस्रव का भी अभाव हो गया है। सब ज्ञान दृष्टि के आवरण के अभाव से सर्वज्ञान दर्शन और इन्द्रिय के विषयों से रहित होकर मुक्त होकर अव्याबाध सुख प्राप्त कर लेता है । आस्रव के हेतुभूत समस्त मोह राग-द्वेष का तीनों काल के निवारण कर ज्ञानी होता है। इसप्रकार भावास्रव व द्रव्यास्रव का विनाश कर किया। जब कारणों का ही अभाव हो गया तो कार्य कहाँ से / कैसे होगा । इस तरह वह ज्ञानी जीव सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी और अनन्त सुखी हो जाता है। गुरुदेव श्री कानजीस्वामी कहते हैं कि ह्न “आत्मा शुद्ध चैतन्य मूर्ति
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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