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________________ ४४२ पञ्चास्तिकाय परिशीलन राग-दौष-मोह रूप जीव-भाव कारन तैं, थिति का प्रबन्ध होइ जेता काल रहना। बहिरंग-हेतु जोग अंतरंग जीवभाव, दौनौ कै पिछानै सेती, कर्मपुंज दहना।।१६०।। (दोहा) आप भूल की भूल तैं, भूला सब संसार । भूलि भूल जब लखि परा, तब पाया भवपार।।१६१।। कवि कहते हैं कि ह्न द्रव्य कर्मों का ग्रहण योगों से होता है तथा योग मन-वचन-काय की प्रवृत्तिरूप है। ये भाव कर्म हेतु हैं। भावकर्म रागादि की उत्पत्ति रूप हैं। उनका निमित्त पाकर पुनः कर्म वर्गणायें आती हैं और आत्मा के प्रदेशों के साथ बंध जाती हैं। आत्मा के राग-द्वेष-मोह उनमें कारण होते हैं, उनसे स्थिति बंध होता है। इसप्रकार कर्मबंध में बहिरंग हेतु तथा अन्तरंग में हेतु जीव के भाव होते हैं। दोनों की यथार्थ पहचान से कर्म नष्ट हो जाते हैं। ___गुरुदेव श्री कानजीस्वामी अपने प्रवचन में कहते हैं कि ह्न "जड़ कर्म अपनी योग्यता से बंधते हैं, उस बंध के दो कारण हैं ह (१) अंतरंग कारण (२) बहिरंग कारण । योग को बहिरंग कारण कहते हैं तथा राग-द्वेष-मोह को अन्तरंग कारण कहते हैं। आत्मा के प्रदेशों का कम्पन योग है. उसमें मन-वचन-काय निमित्त हैं। वे योग नवीन कर्मों के आने में बहिरंग निमित्त कारण हैं तथा मोह-राग-द्वेष नवीन कर्मों के आने में अंतरंग कारण हैं। यद्यपि दोनों का कार्य भिन्न-भिन्न है। योग का निमित्त पाकर पुद्गल कर्म जीव के प्रदेशों में परस्पर एक क्षेत्रावगाहपने ग्रहण होते हैं। वहाँ योग बहिरंग कारण है तथा मोह-रागद्वेष अंतरंग कारण है। परवस्तु अनुकूल या प्रतिकूल नहीं है, किन्तु 'यह वस्तु अनुकूल है तथा वह वस्तु प्रतिकूल है ह्र ऐसा मोह-राग-द्वेष भाव बंध है और यह राग-द्वेष, मोह द्रव्य कर्मबंध का अन्तरंग कारण है।" इसप्रकार द्रव्य कर्मबंध के अन्तरंग बहिरंग कारणों की चर्चा हुई। . गाथा -१४९ विगत गाथा में बंध के अंतरंग-बहिरंग कारणों का कथन किया। अब प्रस्तुत गाथा में मिथ्यात्वादि द्रव्य पर्यायों को भी बंध के बहिरंग कारणपने का कथन करते हैं। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र हेदू चदुव्वियप्पो अट्ठवियप्पस्स कारणं भणिदं। तेसि पि य रागादी तेसिमभावे ण बझंति।।१४९।। (हरिगीत) प्रकृति प्रदेश आदि चतुर्विधि कर्म के कारण कहे। रागादि कारण उन्हें भी, रागादि बिन वे ना बंधे||१४९|| द्रव्य मिथ्यात्व आदि चार प्रकार के हेतु जो आठ प्रकार के कर्मों के कारण कहे गये हैं; उनमें भी जीव के रागादि भाव कारण हैं; उन रागादि भावों के अभाव में जीव नहीं बंधते। आचार्य श्री अमृतचन्द्र देव टीका में कहते हैं कि ह्न “यह मिथ्यात्वादि द्रव्य पर्यायों को भी बहिरंग कारणपने का प्रकाशन है। अन्य शास्त्रों में भी मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग ह इन चार प्रकार के द्रव्य हेतुओं को अर्थात् द्रव्य प्रत्ययों को आठ प्रकार के कर्मों के हेतु से बंध के हेतु कहे गये हैं, उन्हें भी रागादिक हैं; क्योंकि रागादि भावों का अभाव होने से द्रव्य मिथ्यात्व, द्रव्य असंयम, द्रव्य कषाय और द्रव्य योग के सद्भाव में भी जीव बंधते नहीं हैं। इसलिए रागादि भावों का अंतरंग हेतुपना होने के कारण निश्चय से बंध हेतुपना है। कवि हीरानन्दजी काव्य में कहते हैं ह्र (दोहा) अष्ट करम-कारण कह्या, हेतु चारि परकार। तिन कारण रागादि हैं, इन विन बंध निवार।।१६२ ।। (सवैया इकतीसा) आठ कर्म कारन है मिथ्या आदि चारि भेद, ताका फुनि और हेतु राग आदि जानना। रागादिक भाव बिना कर्मबन्ध होई नाहि, मिथ्या आदि उदै हेतु बाहर का मानना ।। (230) १. श्रीगुरु प्रवचन प्रसाद नं. ११२, दि. २९-५-५२, पृष्ठ-१७९९
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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