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________________ गाथा - १४६ विगत गाथा में द्रव्य एवं भाव निर्जरा के मुख्य कारण बताये हैं? अब प्रस्तुत गाथा में ध्यान के स्वरूप का कथन करते हैं। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र । जस्स ण विज्जदि रागो दोसो मोहो व जोगपरिकम्मो। तस्स सुहासुहडहणो झाणमओ जायदे अगणी।।१४६।। (हरिगीत) नहिं राग-द्वेष-विमोह अरु नहिं योग सेवन है जिसे। प्रगटी शुभाशुभ दहन को, निज ध्यानमय अग्नि उसे||१४६|| जिसे मोह और राग-द्वेष नहीं हैं तथा योगों का सेवन नहीं है अर्थात् मन-वचन-काय के प्रति उपेक्षा है, उसे शुभाशुभ को जलानेवाली ध्यानमय अग्नि प्रगट होती है। आचार्य श्री अमृतचन्द्र देव टीका में सविस्तार कहते हैं कि ह्र "शुद्धस्वरूप में अविचलित चैतन्य परिणति ही यथार्थ ध्यान है। ध्यान प्रगट होने की विधि यह है कि ह्र जब ध्यानकर्ता दर्शनमोहनीय और चारित्र मोहनीय का विपाक होने से उस विपाक को अपने से भिन्न अचेतन कर्मों में समेट कर, तदनुसार परिणति से उपयोग को व्यावृत्त करके अर्थात् उस विपाक के अनुरूप परिणमन में से उपयोग को निवर्तन करके मोही, रागी और द्वेषी न होनेवाले उपयोग को शुद्ध आत्मा में ही निष्कम्परूप से लीन करता है, तब उस योगी को ह्र जो कि अपने निष्क्रिय चैतन्य स्वरूप में विश्रान्त है, मन-वचन-काय को नहीं ध्याता, मनवचन-काय का अनुभव नहीं करता और स्वकर्मों में व्यापार नहीं करता निर्जरा पदार्थ (गाथा १४४ से १४६) ४३७ उसे सकल शुभाशुभ कर्म रूप ईंधन को जलाने में समर्थ अग्निसमान परम पुरुषार्थ रूप ध्यान प्रगट होता है। अतः अन्य की तो बात ही क्या करें, यहाँ तो कहते हैं कि शास्त्रों में भी अधिक नहीं उलझना चाहिए। इसी बात को कवि हीरानन्दजी अपनी काव्यभाषा में कहते हैं ह्न (दोहा) राग-दोष नहिं मोह फुनि, जोग नहिं अस जास। ध्यान-अगनि करि तासकै, करम सुभासुभ नास॥१४३।। (सवैया इकतीसा) जाही समै जोगी-जीव दर्सन-ज्ञान-चारित्र, कर्म कै विपाक सबै न्यारा रूप करता। राग-दोष-मोह तीनौं इनको अभाव कीनौ, सुद्ध ग्यान रूप आपा आप माहिं परता ।। ताही समै काय-वाचा-मन सौं निराला आप, चेतना अचल रूप कर्म नाहिं वरता। तातै पुरुषार्थ-सिद्ध-साधक है ध्यान-वह्नि, पुरा कर्म दाहि दाहि सुद्ध रूप धरता।।१४४ ।। (दोहा) सुद्ध-सरूप विषै अचल चेतनता सो ध्यान । यातें आतम-लाभ का कारण रूप निदान।।१४५ ।। कवि हीरानन्दजी उक्त काव्यों में कहते हैं कि ह्र जिनके राग-द्वेष व मोह नहीं है तथा योगों का सेवन नहीं हैं अर्थात् मन-वचन-काय के प्रति उपेक्षा है, उनके शुभाशुभ को जलाने वाली ध्यानमय अग्नि प्रगट होती है। उससे वे जीवों के राग-द्वेष-मोह ह्न तीनों का अभाव करके तथा भेदज्ञान द्वारा दर्शन ज्ञान चारित्र को प्राप्त कर मन-वचन-काय से भिन्न करके ध्यानरूपी अग्नि से पुराने कर्मों को नष्ट करते हैं, उनके कर्मों की निर्जरा होती है। 227)
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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