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________________ पञ्चास्तिकाय परिशीलन (सवैया इकतीसा) आस्रव निरोध संवर और सुद्धोपयोग, इन दोनों सेती सदर जो मुनि चरतु हैं। बाहिर-अभ्यन्तर है बारह प्रकार तप, ता” कर्म निर्जरा सौ बंधन गरतु है ।। तातें कर्मबीज नास करने समर्थ एक, सुद्ध उपयोग भाव निर्जरा करतु है। ताकै परभाव सेती कर्म रस नीरस है, सोई दर्व निर्जरा है, मोख कौं धरतु है।।१३८ ।। (दोहा) पूरव-संचित करम को एकोदेस विनास । सो निर्जरा कहान है, ज्यौं जीरन-आवास।।१३९ ।। उक्त पद्यों में कवि कहते हैं कि ह्र उन मुनियों का जीवन धन्य है जो मुनि संवर और त्रियोग की निर्मलता के साथ नाना प्रकार के तप करते हैं, और कर्मों की निर्जरा करते हैं। आगे कवि ने कहा ह्र आस्रव का निरोध संवर है। मुनि का आचरण शुद्धोपयोग रूप तथा संवररूप होता है। ___ अंतरंग व बहिरंग बारह प्रकार का तप निर्जरा का कारण है; क्योंकि उसके प्रभाव से कर्मों का रस नीरस हो जाता है। इसप्रकार वही भाव निर्जरा सहित द्रव्य निर्जरा मोक्ष का कारण बनती है। गुरुदेव श्री कानजीस्वामी कहते हैं कि ह्र “जो भेद विज्ञानी शुभाशुभ आस्रव के निरोध रूप संवर तथा शुद्धोपयोगरूप योग सहित अन्तरंगबहिरंग तप करते हैं, वे निश्चय से बहुत कर्मों की निर्जरा करते हैं। भेदविज्ञानी जीवों को योग होता है, आत्मा के भान बिना ध्यान किसका/कैसा? आत्मा में समय-समय पर संसारावस्था में विकार होता है, उसमें कर्म निमित्त होते हैं। ऐसा होते हुए भी ‘आत्मा द्रव्यरूप से निर्जरा पदार्थ (गाथा १४४ से १४६) ४३३ शुद्ध है' ज्ञानी को ऐसा भान होता है। ऐसे भान बिना योग (ध्यान) नहीं हो सकता। सुदेव-कुदेवादि को समान मानना समभाव नहीं है, बल्कि सुदेव को सुदेव और कुदेव को कुदेव जानने का नाम समभाव है। जो ऐसे वर्तमान पर्याय के अन्तर को नहीं जानते, उसे पर से व राग से आत्मा जुदा है ह्र ऐसा विवेक करना नहीं आता। सुदेव व कुदेव के बीच विवेक हो, जड़ व चैतन्य का विवेक जाने, विकार व अविकार में अन्तर जाने, बन्ध व अबन्ध के बीच भेद जाने, वे भेद विज्ञानी हैं। उन्हें शुभाशुभ भाव उत्पन्न नहीं होते। उसे संवर होता है। जिसे संवर है, उसे आत्मा में शुद्ध उपयोग रूप जुड़ान से तथा अंतरंग-बहिरंग तप से जो शुद्धता होती है, उस शुद्धता की बृद्धि रूप एवं अशुद्धता के व्ययरूप भाव निर्जरा होती है तथा जो पुराने कर्म क्षय हो जाते हैं उस अपेक्षा द्रव्य निर्जरा होती है। जीव का बारह प्रकार का तप उस द्रव्य निर्जरा में निमित्त होता है। ज्ञानी जीव को जितना शुद्धोपयोग वर्तता है, उतने प्रमाण में कर्मों की निर्जरा होती है।” ___ इसप्रकार इस गाथा में संवर की सामान्य चर्चा करते हुए निर्जरा एवं उनके भेद द्रव्य निर्जरा एवं भाव निर्जरा को समझाया है तथा यह बताया है कि ह्न अंतरंग-बहिरंग तपों द्वारा निर्जरा होती है, अतः ज्ञानी को संवरपूर्वक यथा साध्य निर्जरा भी होती है। वह बुद्धिपूर्वक अन्तरंग बहिरंगतप करता ही है। (225) १. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १०५-२६०, दिनांक १५-५-५२, पृष्ठ-१६६९
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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