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________________ ४१६ पञ्चास्तिकाय परिशीलन ज्ञानी अनुकम्पा करे आकुलता-भाव हरै, कर्म का विपाक जानै उद्यम विसाल है ।। अजय है अज्ञानी भवकूप का निदानी सदा, मोख की निसानी ग्यानी ग्यान मैं त्रिकाल है ।। ११७ ।। (दोहा) दुखित जीव दुःख देख कै, जो दुख करिहै दूर । अनुकम्पा परिनाम सो करुणा रस भरपूर । । ११८ ।। कवि कहते हैं कि ह्न प्यासे, भूखे प्राणी को देखकर दुखी होना अनुकम्पा है। नर-नारियों को रोगों एवं बुढ़ापे से दुःखी देखकर अज्ञानी व्याकुल होते हैं । ज्ञानियों को उन्हें देख दया तो आती है; परन्तु देवत्व के सहारे उनके पापोदय का फल जानकर समता रखते हैं तथा उनके दुःख को यथासंभव दूर करने का प्रयास करते हैं। गुरुदेव श्रीकानजीस्वामी व्याख्यान में कहते हैं कि ह्न “जो कोई तृषावंत है, भूखा है अथवा रोगादि से दुःखी है, उसे देखकर जो पुरुष उनकी पीड़ा से स्वयं दुःखी होकर दयाभाव करता है तथा उस पुरुष के दुःख को दूर करने के परिणाम करता है, उसे दया कहते हैं। वह दया का भाव पुण्यास्रव हैं। यह दया का भाव ज्ञानी व अज्ञानी दोनों को होता है, परन्तु इतना विशेष है कि अज्ञानी को जो दुखियों को देखकर दयाभाव होता है, उसके दुःख को दूर करने के उपाय में वह अहं बुद्धि करके आकुलता करता है मैं उसके दुःख को दूर कर सकता हूँ' ह्र ऐसे अभिप्राय के कारण वह मिथ्यादृष्टि है, उसे मिथ्या मान्यता का बहुत पाप बंध होता है, किन्तु जितना कोमलता का भाव होता है, उस अनुपात में उसे पुण्य बंध भी होता है। ज्ञानी अपने आत्मा को जानते हुए परपदार्थों की अवस्था को यथार्थ जान लेता है कि करुणा का पात्र जीव क्षुधा तृषा के कारण दुःखी नहीं है; परन्तु वह अपने अज्ञानता के कारण दुःखी है; किन्तु ज्ञानी को अपनी पुरुषार्थ की कमजोरी से जो दया का भाव होता है, उससे उसे पुण्यबंध होता है, धर्म नहीं होता । " · १. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. २०० दिनांक ९-४-५२, पृष्ठ १६१५ (217) गाथा - १३८ विगत गाथा में अनुकम्पा के स्वरूप का कथन किया। अब प्रस्तुत गाथा में चित्त की कलुषता के स्वरूप का कथन करते हैं। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र कोधो व जदा माणो माया लोभो व चित्तमासेज्ज । जीवस कुणदि खोहं कलुसो ति य तं बेंति ।।१३८ ।। बुध (हरिगीत) अभिमान माया लोभ अर, क्रोधादि भय परिणाम जो । सब कलुषता के भाव ये हैं, क्षुभित करते जीव को ॥ १३८ ॥ जो क्रोध, मान, माया तथा लोभ चित्त का आश्रय पाकर जीव को क्षोभ उत्पन्न करते हैं, उस क्षोभ को ज्ञानी 'कलुषता' कहते हैं। आचार्य श्री अमृतचन्द्र टीका में कहते हैं कि ह्न क्रोध, मान, माया और लोभ के उदय से चित्त का क्षोभ कलुषता है। इन्हीं कषायों के मन्द उदय से चित्त की प्रसन्नता अकलुषता है। वह अकलुषता कदाचित् कषाय का विशिष्ट क्षयोपशम होने पर अज्ञानी को भी होती है; कषाय के उदय का अनुसरण करने वाली परिणति में से उपयोग को आंशिक रूप से विमुख किया हो तब मध्यम भूमिकाओं में कदाचित् ज्ञानी को भी वह अकलुषता का भाव होता है।" कवि हीरानन्दजी काव्य की भाषा में कहते हैं ( सवैया इकतीसा ) क्रोध, मान, माया, लोभ, तीव्र रूप उदै आये, चित्त विषै छोभ होय, संकलेस भावतें । सोई चित्त- कलुषाई ग्रन्थ में बताई सदा, चित्त की प्रसन्नताई मंद उदै दावतें ।।
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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