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________________ ४१० पञ्चास्तिकाय परिशीलन निमित्त बनते हैं, उन रागादि के निमित्त बंध तो मूर्त कर्मों से मूर्त कर्मों का ही होता है।" __गुरुदेवश्री कानजीस्वामी भी यही कहते हैं कि ह्र आत्मा तो ज्ञानघन अरूपी वस्तु है। उसकी पर्याय में जो दया आदि के शुभभाव होते हैं एवं अहिंसा आदि के अशुभभाव होते हैं, वे भी अरूपी हैं, परन्तु वे शुभाशुभ परिणाम वस्तुत जीव के ही हैं; क्योंकि वे भी अमूर्त हैं, चैतन्य में स्पर्श गुण नहीं हैं, वह तो अस्पर्शी है, जीव तो अपने में अमूर्तिक विकार करता है तथा उस विकार के निमित्त से मूर्त कर्मों के साथ मूर्त कर्म बंधते हैं। मूर्तकर्म के संयोग से जीव मूर्त नहीं हो जाता। यहाँ यह नहीं समझना कि जीव की पर्याय में विकार होता ही नहीं है। विकार तो जीव की पर्याय में होता है, वह विकार भी अमूर्तिक है। चिदानन्द स्वरूप से चूकने पर विकारी पर्याय होती है तथा चैतन्यस्वरूप श्रद्धा ज्ञान करके एकाग्र होने पर विकार छूटकर निर्विकारी पर्याय प्रगट होती है।" तात्पर्य यह है कि ह्र जीव के स्वभाव में विकार नहीं है, पर्याय में जो विकार है, उसे कर्म नहीं कराता; किन्तु जीव जब अपने अपराध से पर्याय में विकार करता है तो उस विकार के निमित्त से नये कर्म बंधते हैं। जीव के विकारी परिणाम भी अमूर्त हैं, जीव अपने में अमूर्तिक विकार करता है और उस परिणाम के निमित्त से मूर्त कर्मों के साथ मूर्त कर्म बंधते हैं। ऐसा समझकर अपनी विकारी पर्याय पर से भी उठाकर ध्रुवस्वभाव की श्रद्धा करना धर्म है। गाथा - १३५ विगत गाथा में मूर्त कर्म का मूर्त कर्म के साथ तथा अमूर्त जीव का मूर्तकर्म के साथ जो बंध होता है, उसकी चर्चा की है। प्रस्तुत गाथा में आस्रव पदार्थ का व्याख्यान करते हैं। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र रागो जस्स पसत्थो अणुकंपासंसिदो य परिणामो। चित्तम्हि णत्थि कलुसं पुण्णं जीवस्स आसवदि।।१३५।। (हरिगीत) हो रागभाव प्रशस्त अर अनुकम्प हिय में है जिसे। मन में नहीं हो कलुषता नित पुण्य आस्रव हो उसे ।।१३५।। जिस जीव को प्रशस्त राग है, अनुकंपा युक्त परिणाम हैं और चित्त में कलुषता का अभाव है, उस जीव को पुण्य का आस्रव होता है। आचार्य श्री अमृतचन्द्र देव कहते हैं कि ह्र “यह पुण्यासव के स्वरूप का कथन है। प्रशस्तराग, अनुकम्पा और चित्त की अकलुषता ह ये तीनों शुभभाव द्रव्य पुण्यास्रव के निमित्तकारण रूप से कारणभूत हैं, इसलिए 'द्रव्यपुण्यासव' के प्रसंग का अनुसरण करके वे शुभभाव भावपुण्यास्रव हैं। तथा वे शुभभाव जिसके निमित्त हैं ऐसे पुद्गलों के शुभकर्म द्रव्यपुण्यासव हैं।" इसी बात को कवि हीरानन्दजी काव्य में कहते हैं ह्र (दोहा) जिसकै राग प्रसस्त है, अनुकम्पा परिनाम । चित्त कलुषता है नहीं, सो पुण्यासव धाम।।११०।। (214) १. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १९८, दि. १५-५-५२, पृष्ठ-१५९९
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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