SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 204
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गाथा - १२४ विगत गाथा में नवतत्वों में जीव को अजीव से भिन्न बताया। अब प्रस्तुत गाथा में अजीव तत्व की बात करते हैं। मूल गाथा इसप्रकार है ह्न आगासकालपोग्गलधम्माधम्मेसु णत्थि जीवगुणा । तेसिं अचेदणत्तं भणिदं जीवस्स चेदणदा।।१२४।। (हरिगीत) जीव के गुण हैं नहीं जड़ पुदगलादि पदार्थ में। उनमें अचेतनता कहीं चेतनपना है जीव में ||१२४|| धर्म, अधर्म, आकाश, काल व पुद्गलद्रव्यों में जीव के गुण नहीं हैं; क्योंकि उनमें अचेतनपना है तथा जीवों में चेतना है। आचार्य अमृतचन्द्र टीका में कहते हैं कि ह्न पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्य में चैतन्य विशेषों रूप जीव गुण विद्यमान नहीं हैं; क्योंकि उनमें अचेतनता सामान्य है और जीव को चेतन कहा है। इसी बात को कवि हीरानन्दजी काव्य में कहते हैं ह्र (दोहा) पुग्गल धरमाधरम नभ, काल जीवगुण नाहिं। इनमै लसै अचेतना, चेतनता जिय माँहि।।७१ ।। (सवैया इकतीसा) नभ काल पुग्गल औ धर्माधर्म पाँचौंविषै, चेतना विसेष कोई काहू नाहिं वरता । मन आदि पाँचौं माहिं वरतै अचेतनता, धरम सामान्यरूप वस्तु-भाव भरता ।। जीवदर्व माहिं एक चेतनता जानि लसै, पाँचौं ते विसेष पारै नाना व्यक्ति धरता। अजीव पदार्थ (गाथा १२४ से १३०) ऐसी वस्तुसीमा हियै किये समकिती जीव, न्यारा पर-भावसेती आप-भाव करता।।७२।। (दोहा ) पाँचौं दरव अचेत हैं जीव चेतनावंत । भेदज्ञान करि जो लखै, सो नर सम्यक्वंत।।७३ ।। उक्त काव्यों द्वारा कवि ने कहा है कि ह्न पुद्गल, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य तथा काल अजीव द्रव्य हैं, इनमें चेतना नहीं है। चेतनता मात्र जीव द्रव्य हैं। जो व्यक्ति स्व-पर के भेदज्ञान पूर्वक इन्हें जानता/पहचानता है, वह सम्यक्दृष्टि है। ___इस गाथा पर प्रवचन करते हुए गुरुदेव श्री कानजीस्वामी कहते हैं कि ह्न "आकाश, काल, पुद्गल, धर्म एवं अधर्म ह्र इन पाँचों द्रव्यों में सुख, ज्ञान-दर्शन आदि जीव के गुण नहीं हैं। चैतन्यभाव मात्र एक जीवद्रव्य में ही होता है। ___ संचेतन वनस्पति जो हमें-तुम्हें दिखती है, वे तो पेड़-पौधों के जड़ शरीर हैं, उनमें चेतना रूप जो जीव है, वह भी अमूर्त है, अतः वह जीव तो दिखाई नहीं देता। वह जीव आत्मा हम-तुम जैसा ही ज्ञान-दर्शनमय है, अनन्त गुणमय है। अपने पूर्व जन्म के पाप भावों के फल में एक इन्द्रिय पर्याय में गया है। अतः हमें उससे प्रेरणा लेकर सच्चे धर्म की साधना में लगना चाहिए।" इसप्रकार यद्यपि इस गाथा में मूलतः अजीव की पहचान कराते हुए उनसे जीव द्रव्य को भिन्न बताया है। कवि हीरानन्द ने मन आदि में भी अचेतनता का उल्लेख कर सामान्यजनों का भ्रम दूर किया है। अन्त में कवि ने यह भी कह दिया है कि जीव चेतन है, शेष पाँचों द्रव्य अचेतन हैं, जो ऐसा भेदज्ञान करता है वह सम्यग्दृष्टि है। (204) १. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १९२, दि. ४-५-५२, पृष्ठ-१५५१
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy