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________________ ३६२ पञ्चास्तिकाय परिशीलन इनमें कोई चेतना प्रगट तौ दीसै नाहिं, जीवभाव सब इनही मैं अछित है ।। तैसकै एक इंद्रिय जीव चेतनासरूप, बाहिर व्यापार सबै बुद्धिकै नसित है । दोनों जगा बुद्धि व्यापार का अदरसन है, दृष्टिग्यान दौनौं जगा केवली लखित है ।। ३५ ।। (दोहा) जैसे अंडादिक विषै जीव चेतना रूप । तैसे थावर काय मैं जीव दरब चिद्रूप ।। ३६ ।। जिसतरह अंडज जीव अंडे में तथा गर्भज जीव गर्भ में मूर्छित रहते हैं। उसीतरह एकेन्द्रियादि में भी मूर्च्छित जीव हैं। यद्यपि उक्त प्राणियों में चेतना प्रगट नहीं दिखती, तथापि वे जीव हैं। उनमें बुद्धि का व्यापार भले हमें दिखाई नहीं देता; किन्तु केवली के ज्ञान स्पष्ट झलकता है उनमें जीव हैं। इस गाथा पर व्याख्यान करते हुए गुरुदेव श्री कानजीस्वामी कहते हैं कि ह्न जिस तरह पक्षियों के अंडों में जीव बढ़ते हैं, परन्तु अंडे में स्वांस ता दिखाई नहीं पड़ता, फिर भी अंडा बढ़ता है। इससे ज्ञात होता है कि इसके अन्दर जीव है। तथा जिसतरह नीम, पीपल आदि बढ़ते हैं, उसी प्रकार सभी स्थावर जीव बढ़ते हैं।" इसप्रकार हम कह सकते हैं कि ह्न जिसतरह गर्भ में स्थित जीव ऊपर से मालूम नहीं पड़ता, किन्तु ज्यों-ज्यों पेट बढ़ता जाता है, वैसे ही पेट के अन्दर जीव का शरीर बढ़ता जाता है उसीप्रकार पाँच प्रकार के स्थावरों में ऊपर से चेष्टा दिखाई नहीं देती, फिर भी आगम से, युक्ति से एवं जीवों की अवस्थाओं से उनके जीवत्व का ज्ञान होता है। · १. श्रीमद् सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १९०, दि. २९-४-५२, पृष्ठ- १५३० (190) गाथा - १९४ विगत गाथा में एकेन्द्रिय जीवों में चेतन्य का अस्तित्व है, इसे दृष्टान्त से समझाया है। अब दो इन्द्रिय के प्रकार बताते हैं । मूल गाथा इसप्रकार है ह्र संबुक्कमादुवाहा संखा सिप्पी अपादगा य किमी । जाणंति रसं फासं जे ते बेइंदिया जीवा । । ११४ । । (हरिगीत) लटकेंचुआ अर शंख शीपी आदि जिय पग रहित हैं। वे जानते रस स्पर्श को इसलिये दो इन्द्रि कहे ||११४|| शंबूक, मातृवाह, शंख, सीप और पदरहित कृमि आदि जो रस व स्पर्श को जानते हैं, वे दो इन्द्रिय जीव हैं। आचार्य अमृतचन्द्र टीका में कहते हैं कि ह्न “स्पर्शनेन्द्रिय और रसनेन्द्रिय के आवरण के क्षयोपशम के कारण तथा शेष इन्द्रियों के आवरण का उदय तथा मन के आवरण का उदय होने से ह्न स्पर्श और रस को जाननेवाले शंबूक आदि जीव मन रहित द्वि-इन्द्रिय जीव हैं।" कवि हीराचन्दजी काव्य की भाषा में कहते हैं ह्र (दोहा) संख - सीप क्रमि जाति अपगद आदि अपार । परस रसन जाने विषै, दो-इन्द्रिय अनिवार ।। ३७ ।। (सवैया इकतीसा ) फास औ रसन दोइ इन्द्रियावरण सोइ, छय-उपशम और इंद्रियावरण है। फरस सुवाद वेवै घोंघा संख सीप क्रमि, इत्यादिक जीव नाना मूढ़ता भरण है ।। अपने असेनी जीव मिथ्या तैं मगन तातैं, लोक नाड़ी - विषै लसै आपद धरण है।
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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