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________________ ३४४ पञ्चास्तिकाय परिशीलन राग-दोष-मोह परनाली मूल ही तैं जाय, निर्विकार चिदानन्द आप ही में राचा है।। ऐसा परिनाम भव्य आतमा प्रगट होय, खोय मिथ्या मेल सारा सुद्धभाव जाँचा है। ऐसे निजरूप पावै मोख कों सिधावै जीव, और भाँति जाने ही ते लोकनाच नाचा है।।६।। (दोहा) दरसन ज्ञान चरन कहे, सिवमारग विवहार । एकरूप चेतन लसै, निहचै मोख-विहार ।।७।। यहाँ कवि दोहे में कहते हैं कि ह्र जो चारित्र राग-द्वेष से रहित और सम्यग्दर्शन सहित है, वह चारित्र मोक्ष का मार्ग है, उसे भव्य जीव प्राप्त करते हैं। आगे सवैया में एवं आगे के दोहे में कहते हैं कि सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र ही मुक्ति का मार्ग है। ऐसी स्थिति में मोह-राग-द्वेष समूल नष्ट हो जाते हैं तथा निर्विकारी शुद्ध आत्मा स्वरूप में मग्न हो जाता है। ऐसे परिणाम भव्य जीवों को प्रगट होते हैं तथा उनका सम्पूर्ण विकार नष्ट हो जाता है। इस तरह निजस्वरूप को प्राप्त कर मुक्ति को प्राप्त करता है। व्यवहार से सम्यक्दर्शन ज्ञान-चारित्र की एकता मोक्षमार्ग है तथा निश्चय से निज स्वरूप में लीनता मोक्षमार्ग है। अब इसी के भाव को गुरुदेव श्री कानजीस्वामी स्पष्टीकरण करते हुए कहते हैं कि ह्र सम्यक्त्व अर्थात् सात तत्त्वों के यथार्थश्रद्धान और वस्तुतत्व के ही यथार्थज्ञान सहित जो आचरण है, वह मोक्ष का मार्ग है। यह गाथा बहुत सरस है यहाँ यथार्थ श्रद्धाज्ञान सहित सम्यक्चारित्र को मोक्षमार्ग कहा है। भावार्थ में स्वामीजी कहते हैं कि ह्न स्वरूप का आचरण, स्वभाव नवपदार्थ एवं मोक्षमार्ग प्रपंच (गाथा १०५ से १०८) ३४५ का अनुष्ठान, स्वभाव में रमणता चारित्र है तथा ऐसा चारित्र सम्यक्दर्शन ज्ञान पूर्व कही होता है। अपने स्वभाव की अर्न्तदृष्टि बिना चारित्र प्रगट नहीं होता। कोई कहे कि ह्न सम्यग्दर्शन का तो पता नहीं चलता, उसे कैसे जाने? उससे कहते हैं कि ह्र आत्मा में एक प्रमेयत्व नाम का गुण है, जहाँ श्रद्धा की पर्याय है, वहीं प्रमेयत्व गुण भी है। उसके कारण ज्ञानी को अपने श्रद्धान को जानने की योग्यता है। तथा ज्ञान ज्ञेयों को जान लेता है ह्र ऐसा ज्ञान का स्वभाव है। अज्ञानी को उसका ज्ञान नहीं है, इसकारण उसे सम्यग्दर्शन नहीं होता। आत्मद्रव्य के ज्ञान बिना राग एवं स्वभाव के बीच, विवेक बिना स्वभाव में रमणता होती ही नहीं है। स्वभाव की यथार्थदृष्टि के बिना वस्तुतः राग घटता ही नहीं है। जिन मुनिराजों को आत्मा का भान वर्तता है, उन मुनियों को सत् की स्थापना का तथा असत् के निषेध का विकल्प ही नहीं उठता। वही उनकी समता है। शास्त्र लिखने का विकल्प भी चारित्र नहीं है, क्योंकि वह विकल्प समताभाव रूप नहीं है। अकषाय परिणति ही चारित्र है तथा वह मोक्ष का कारण है।" इसप्रकार इस गाथा में सम्यक्त्व व ज्ञान युक्त तथा राग द्वेष से रहित चारित्र को ही मोक्षमार्ग कहा है। यह मोक्षमार्ग भव्यों को क्षीणकषायपने ही होता है। यहाँ गुरुदेवश्री ने एक प्रश्न उठाकर जो उत्तर दिया है, वह बहुत ही महत्वपूर्ण हैं; क्योंकि इस विषय में बहुत व्यक्तियों को शंका होती है कि सम्यग्दर्शन का तो पता नहीं चलता, उसे कैसे जानें। ___गुरुदेव कहते हैं कि जहाँ ज्ञान गुण है वही प्रमेयत्वगुण भी है, उसके ज्ञानी को अपने श्रद्धान को जानने की योग्यता है - ज्ञान ज्ञेयों को जान लेता है - ऐसा ज्ञान का स्वभाव है। (181) १. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद सन् १९ अप्रेल ५४, पृष्ठ १४५४
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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