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________________ ३४० पञ्चास्तिकाय परिशीलन तब ही तैं दृष्टि मोह छीन होता जाइ ताका, निज रूप जानै ग्यान ज्योति उछरतु है ।। राग - दोष सान्त होड़ पूरब निबंध खोई, नवा बंध का अभाव ग्यान निवरतु है । आप विषै लीन होड़ पर का वियोग जोड़, सुद्ध चेतना - स्वभाव आप में भरतु है । ।४४७ ।। उक्त सवैया में कवि कहते हैं कि ह्न इस ग्रन्थ में वर्णित जिसने जब शुद्धात्मा के स्वरूप को जानने का उद्यम किया है, उसने तभी दर्शनमोह का अभाव कर तथा निज स्वरूप को जानकर ज्ञान की ज्योति प्रगट की है। एवं जिसने राग-द्वेष का अभाव करके पूर्व में बाँधे कर्मों का नाश करके तथा नवीन कर्म बंध का अभाव करके सम्यग्ज्ञान प्रगट किया है, वही शुद्ध चेतना के स्वभाव को प्राप्त करता है । इस गाथा के सन्दर्भ में गुरुदेवश्री कानजीस्वामी कहते हैं कि “जिन्होंने इस ग्रन्थ के रहस्य रूप जो शुद्धात्म पदार्थ को जानकर उसी में प्रवीण होने का उद्यम किया है, वे भेदविज्ञानी जीव मोक्षपद के अनुभवी होते हैं। " जिन्होंने दर्शन मोह का नाश किया है तथा पूर्वापर बंध का अभाव किया है, वे जीव मोक्ष के अधिकारी होते हैं, शुद्धात्मा की ओर उनका झुकाव हो जाता है। यहाँ तक प्रथम श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ। अब आगे नवपदार्थों का भेद से कथन करेंगे। उसमें सर्व प्रथम सर्वज्ञ भगवान की स्तुति की है। वे केवली भगवान सर्वज्ञ वीतराग हैं, इसकारण उनके वचन प्रामाणिक होते हैं। वीतराग सर्वज्ञ के सिवाय अन्य मतवालों वचन प्रामाणिक नहीं होते। इसी कारण कुन्दकुन्दाचार्य ने सर्वज्ञ भगवान की स्तुति है तथा उन्हीं की दिव्यध्वनि के अनुसार ग्रन्थ की रचना की है। १. श्री प्रवचनप्रसाद नं. १८२, दिनांक २१-४-५२, पृष्ठ १४५९ (179) गाथा - १०५ विगत गाथा में दुःख से मुक्त होने के क्रम का कथन करते हुए छह द्रव्य के प्रकरण को पूरा किया। अब गाथा १०५ के पहले आचार्य श्री अमृतचन्द्र स्वामी ने जो प्रथम स्कन्ध में कहा है तथा द्वितीय स्कन्ध में कहने जा रहे हैं, यहाँ उसका संक्षेप में उल्लेख करते हैं। मूल कलश इस प्रकार है ह्र द्रव्य स्वरूप प्रतिपादनेन, शुद्धं बुधानामिह तत्त्व मुक्तम् । पदार्थ भंगेन कृताण बारं, प्रकीर्त्य ते संप्रति वर्त्म तस्य ॥७ ॥ कलश का तात्पर्य यह है कि ह्र इस शास्त्र के प्रथम श्रुत स्कन्ध में द्रव्य स्वरूप के प्रतिपादन द्वारा बुधपुरुषों ने शुद्धतत्त्व का उपदेश दिया गया है। अब नवपदार्थ रूप भेद द्वारा प्रारम्भ करके शुद्धात्मतत्त्व का वर्णन किया जाता है। इस द्वितीय श्रुत स्कन्ध में आचार्य कुन्दकुन्द गाथा सूत्र द्वारा मंगलाचरण तथा प्रतिज्ञावाक्य कहते हैं। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र अभिवंदिऊण सिरसा अपुणब्भवकारणं महावीरं । तेसिं पयत्थभंगं मग्गं मोक्खस्स वोच्छामि ।। १०५ ।। (हरिगीत) मुक्तिपद के हेतु से शिरसा नमू महावीर को । पदार्थ के व्याख्यान से प्रस्तुत करूँ शिवमार्ग को ॥ १०५ ॥ अपुनर्भव के कारण हैं अर्थात् जिनके उपदेश को सुनकर भेदविज्ञान द्वारा मोक्ष प्राप्त होता है उन महावीर स्वामी को शिर नवाकर वन्दन करके उनके द्वारा कहे गये काल सहित पंचास्तिकाय का कथन करके अब नवपदार्थों का भेदरूप मोक्ष का मार्ग कहूँगा । यहाँ आचार्य अमृतचन्द्र आप्त की स्तुति पूर्वक प्रतिज्ञावाक्य में कहते हैं कि यहाँ प्रवर्तमान धर्मतीर्थ के मूलकर्त्ता, भगवान वर्द्धमान स्वामी की
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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