SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 170
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२२ पञ्चास्तिकाय परिशीलन इसी बात को कवि हीरानन्दजी काव्य में कहते हैं कि ह्न ( सवैया इकतीसा ) धर्माधर्म लोकाकाश तीनों ए समान देस, एक खेतवासी तातैं एकभाव भजै हैं । ऐसा विवहार असद्भूतनय लखाव, ग्याता जीव लखि जानै मिथ्यामति लजै हैं । गति - थान - अवगाह हेतु रूप भिन्न देस, इतने विशेष सेती न्यारै तीनौ रजै हैं । निचै सरूप ऐसा अनुभौ विलास तैसा, ग्यानी ग्यानभाव जानै ग्येय संग तजै हैं । ।४१९ ।। यहाँ कवि कहते हैं कि ह्न धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य एवं लोकाकाश ये ह्र तीनों एक क्षेत्रवासी होने से एक भावरूप ही हैं, ऐसा असद्भूत व्यवहारनय से कहा है। जीवद्रव्य ज्ञाता हैं ह्र ऐसा जान मिथ्या बुद्धि लज्जित होती है। धर्म, अधर्म व आकाश के क्रमशः गति-स्थिति व अवगाह लक्षण हैं। इतना विशेष जानकर तीनों को प्रथक से कहा है । इसी गाथा का विशेष स्पष्टीकरण करते हुए गुरुदेवश्री कानजीस्वामी कहते हैं कि ह्न “धर्म, अधर्म एवं लोकाकाश ह्न ये तीनों द्रव्य व्यवहारनय की अपेक्षा एक क्षेत्रावगाही हैं। जहाँ आकाश है, वहीं ये धर्म-अधर्म भी रहते हैं। तीनों के प्रदेश भी असंख्यात ही हैं। तथापि इन्हें निश्चयनय देखें तो जुदे - जुदे हैं। ये अपने स्वभाव से टंकोत्कीर्ण अपनी-अपनी भिन्नभिन्न सत्ता वाले हैं। " इसप्रकार इस गाथा में आगम एवं तर्क के आश्रय से धर्म, अधर्म द्रव्य से आकाश की भिन्नता एवं अभिन्नता सिद्ध की है। १. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १९६, पृष्ठ- १४०९, दिनांक १६-४-५२ के बाद ( 170 ) गाथा - ९७ विगत गाथा में कहा है कि ह्न धर्म, अधर्म और लोकाकाश का अवगाह की अपेक्षा एकत्व होने पर वस्तुस्वरूप से अन्यत्व कहा है। अब प्रस्तुत गाथा में चूलिका के रूप में द्रव्यों का मूर्त-अमूर्त्तपना तथा चेतन-अचेतनपना बताते हैं । मूल गाथा इसप्रकार है ह्न आगासकालजीवा धम्माधम्मा य मुत्तिपरिहीणा । मुत्तं पुग्गलदव्वं जीवो खलु चेदणो तेसु ।। ९७ ।। (हरिगीत) जीव अर आकाश धर्म अधर्म काल अमूर्त हैं । मूर्त पुद्गल जीव चेतन शेष द्रव्य अजीव हैं ।। ९७ ।। आकाश, काल, जीव, धर्म व अधर्म अमूर्त हैं, पुद्गल मूर्त हैं, उनमें जीव चेतन है। आचार्य अमृतचन्द्र टीका में कहते हैं कि ह्र जिसमें स्पर्श-रस-गंधवर्ण का सद्भाव है वह मूर्त्त है। जिनमें उक्त गुणों का अभाव है, वे अमूर्त हैं। जिसमें चेतन्य का सद्भाव है, वह जीव है। जीव निश्चय तो अमूर्त ही है, पर व्यवहार से मूर्त्त द्रव्य के संयोग की अपेक्षा से मूर्त भी कहा जाता है। कवि हीरानन्दजी का इकतीसा सवैया अधूरा उपलब्ध है, अतः नहीं दिया गया है ( दोहा ) व्योम काल आतम धरम, अधरम मूरति हीन । पुद्गल मूरतिवंत है, जीव चेतना लीन ।। ४२३ ।।
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy