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________________ पञ्चास्तिकाय परिशीलन (३) कथन के निमित्त से ज्ञात हुए उस पंचास्तिकाय का ही वस्तुरूप से समवाय (समूह) 'अर्थसमय' है अर्थात् सर्वपदार्थसमूह अर्थसमय है। यहाँ आचार्य ज्ञानसमय की प्रसिद्धि के हेतुभूत शब्दसमय के द्वारा अर्थसमय का कथन करना चाहते हैं। वही अर्थसमय अर्थात् समस्त द्रव्यसमूह लोक और अलोक के भेद से दो प्रकार का है। जितने आकाश प्रदेशों में पंचास्तिकाय है, उतना लोक है। उससे आगे अनन्त अलोक है। पंचास्तिकाय जितने क्षेत्र में हैं, उसे छोड़कर शेष अनन्त-क्षेत्रवाला अलोकाकाश आकाश द्रव्य है। अलोकाकाश शून्यरूप अर्थात् अभावरूप नहीं है; किन्तु वह शुद्ध आकाशद्रव्य है।" इसी बात को कवि हीरानन्दजी काव्य में कहते हैं, जो इसप्रकार है ह्न (दोहा) पंच वस्तु समवायकौं, समय कहत जिनराज । लोक सो जु तातै परे है, अमित अलोक समाज।।३५।। पाँचों द्रव्यों के समुदाय के जिनराज 'समय' कहते हैं। जहाँ तक ये पाँचों है, वह लोकाकाश है, शेष सब अपरिमित-अनन्त अलोकाकाश हैं। (सवैया इकतीसा) सबकौ समूह इकठौर सोई समवाय, ताहीको समय नाम ग्रंथनिमैं चले है। जहाँ पंच वस्तुको मिलाप एक खेत देखै, आप आप विषै पै न कोऊ कास्यौं रलै है।। सोई लोकाकास जामैं लोकिए सदैव द्रव्य, ताः परै सुन्नाकास लोकभाव टलै है। ऐसा सरधान जिनवानी के प्रवान आवै, जबै जीव माहिं मिथ्या मोह-भाव गलै है ।।३६।। पंचास्तिकाय ही समय है (गाथा १ से २६) सब द्रव्यों का एक स्थान पर इकट्ठा होना ही समवाय है। सब ग्रन्थों में इन्हें ही समय कहा है। जहाँ एक क्षेत्र में पाँचों वस्तुओं का मिलाप है, वहाँ भी सभी अपने क्षेत्र में ही हैं, कोई भी एक-दूसरे से मिलता नहीं है। जिसमें सभी द्रव्य शोभायमान हैं, दिखाई देते हैं, वह लोकाकाश है। उसके ऊपर अनंत अलोकाकाश है, वहाँ लोक का अन्य कोई द्रव्य नहीं है। जब जिनवाणी के कहे अनुसार ऐसा श्रद्धान होता है तभी मोह भाव का नाश होता है। (दोहा) आदि आदि नहिं देखिए, अन्त अन्त नहिं जास। वसै जहाँ षट दरव ए, सोई लोकाकास।।३७।। तातै परै अनंत है, सबै अलोकाकास । समय नाम तातें कहा, लोकालोक-निवास।।३८।। जिनका आदि अन्त दिखाई नहीं देता; फिर भी जहाँ छह द्रव्य रहते हैं, वहाँ लोकाकाश हैं। उसके ऊपर अनन्त अलोकाकाश है। इस आकाश द्रव्य में ही छह द्रव्यों का निवास है, इस कारण इसका नाम समय भी है। इस गाथा के भाव को आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजीस्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र “यहाँ पाँच अस्तिकाय के समूह को समय कहा है। काल का कथन गौण है। काल की अस्ति है; पर वह अस्तिकाय नहीं है। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश ह्र ऐसे पाँच अस्तिकाय हैं। जीव, धर्म और अधर्म असंख्यप्रदेशी हैं; अतः उन्हें काय कहा है। शुद्ध परमाणु एकप्रदेशी होने पर भी उसमें स्कंधरूप होने की योग्यता है; अतः शुद्ध परमाणुरूप पुद्गल द्रव्य को उपचार से अस्तिकाय कहा है और काल में स्पर्श गुण नहीं है; अतः एक कालाणु को दूसरे कालाणु के साथ में स्कंधरूप होने की योग्यता नहीं है; अतः कालाणु अस्तिकाय नहीं है। इस कारण यहाँ काल का वर्णन गौण है। (16)
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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