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________________ २५८ पञ्चास्तिकाय परिशीलन इसी बात को कवि हीरानन्दजी इसप्रकार कहते हैं ह्र (दोहा) सान्त-खीन करि मोह कौं, जिनसासन कौं जानि । ज्ञानपंथ अनुगमन करि, सिवपुर करि पहिचानि ।।३२५ ।। (सवैया इकतीसा ) इहै जीव जाही समै जिनवानी-पन्थ जाने, सान्त खीनमोही होइ मिथ्या हठ नासै है। सत्यज्ञान-ज्योति जागै कर्त्ता सा भोगता लागै, ___ सरवग रूप एक प्रभुता विलासै है ।। ग्यान-पंथ सूधा एक ताहि मैं गमन करै, भमनै का भाव झारै सुद्ध परकास है। केवल विमल एक सुद्ध सदकाल रहै, सोई जगवास नासि मोखपास वास है।।३२६ ।। कवि हीरानन्दजी उक्त काव्यों में कहते हैं कि ह्न “जिसने जिनशासन का रहस्य जानकर मोह का उपशमन एवं क्षय किया है तथा सम्यग्ज्ञान पन्थ का अनुगमन किया है, वह मोक्षमार्गी है, शिवपथ का पथिक है। यह जीव जिससमय जिनशासन का मार्ग पा लेता है, वह मिथ्यात्व का नाशकर सम्यग्ज्ञानी होकर उपशांत मोही एवं क्षीणमोही हो जाता है। तथा सर्वज्ञता प्राप्त कर लेता है। कवि आगे कहते हैं कि ज्ञान का मार्ग सीधा है, ज्ञानी उसी में गमन करता है। संसार में परिभ्रमण करने के भव का अभाव करता है, आत्मा के शुद्ध स्वरूप का प्रकाश करता है तथा जो मात्र निर्मल एक शुद्ध स्वरूप में सदाकाल रहता है वह जगवास का नाश करके मोक्ष प्राप्त कर लेता है। इसी तरह के भाव को व्यक्त करते हुए गुरुदेवश्री कानजीस्वामी कहते जीव द्रव्यास्तिकाय (गाथा २७ से ७३) २५९ हैं कि ह्न “जो अपनी फल विपाक दशारहित उपशम भाव को अथवा क्षयभाव को प्राप्त हुआ है तथा असत् वस्तु में प्रतीतरूप मोहकर्म जिसका नष्ट हो गया है, वह अपने स्वरूप में निश्चल सम्यग्दृष्टि जीव मोक्षनगर में गमन करता है। जीव को जो उपशम या क्षायिक समकित होता है, वह अपनी प्रभुता से होता है, कर्मों के उपशम के कारण नहीं; यद्यपि कर्म के उपशम का समय और आत्मा में उपशम समकित होने का समय एक है, तथापि कर्म के उपशम के कारण समकित नहीं होता। जब जीव अपने शुद्धचिदानन्द स्वभाव के आश्रय से श्रद्धा करता है तब कर्मों का उपशम कर्मों के कारण होता है। कर्म आत्मा में कुछ करते नहीं हैं। तथा आत्मा कर्म में कुछ भी नहीं करता। दोनों में स्वतंत्र क्रिया होती है। __गुरुदेव कहते हैं कि ह्र प्रभुत्व शक्ति तो अनादि-अनन्त है। प्रभुत्व शक्ति दो नहीं हैं; परन्तु जिसको उस शक्ति का भान तो है नहीं है तथा राग-द्वेष के परिणाम करता है तो वे ह्न परिणाम भी वह अपनी प्रभुत्व शक्ति से ही करता है; क्योंकि विकार करने में भी उसकी प्रभुता है और स्वभाव का भान होने पर शुद्धता प्रगट करने में भी स्वयं की प्रभुता है।" इसप्रकार इस गाथा में पर्याय की प्रभुता की बात की है। तथा स्वतंत्र पर्याय का ज्ञान कराने के लिए प्रमाण ज्ञान कराया है तथा कहा है कि ह्र जो सम्यग्दृष्टि जीव गुणस्थान परपाटी के क्रम से जिनवचनों द्वारा मोक्षमार्ग को प्राप्त करके दर्शनमोह के उपशम, क्षय, क्षयोपशम को प्राप्त करके सम्यग्ज्ञान प्रगट करता है वह शीघ्र मोक्ष प्राप्त कर लेता है। (138) १. श्री सद्गुरु प्रवचनप्रसाद नं. १६० पृष्ठ १२७० दि. ३१-३-५२, पंचास्तिकाय गाथा ७०
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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