SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 135
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५२ पञ्चास्तिकाय परिशीलन ( दोहा ) कर्म करै निजभाव कौं, जीव भावक सोइ । भुगता एकै जीव है, भाव-करमफल दोड़ ।। ३१९ ।। ( सवैया इकतीसा ) जैसे दर्व कर्म करै निहचें सुभाव आप, विवहारनय देखें परभाव कर्त्ता है । जैसें जीव करै निजभाव कौं निहचै रूप, विवहारनय सोई परभाव धर्त्ता है । जैसें दोनों नयाँ करि जीव भोगता कहावै, दुःख सुख भाव और इष्टानिष्ट-भर्त्ता है। तैसें भोगी कर्म नाहिं चेतना अभाव तातैं, ग्यानी ग्यान-भाव भावै राग-दोष हर्त्ता है ।। ३२० ॥ द्रव्यकर्म निश्चय से ही निजभाव का कर्त्ता है और व्यवहार से जीव राग-द्वेष आदि भावों का कर्त्ता कहा जाता है तथा भोक्ता एक मात्र जीव ही है, कर्म चेतनत्व के अभाव के कारण भोक्ता नहीं, ज्ञानी ज्ञान भाव के कारण राग-द्वेष का हर्त्ता है। प्रस्तुत सवैया में कहा है कि ह्न जिसप्रकार निश्चय से द्रव्यकर्म अपने स्वभाव का कर्ता है तथा व्यवहारनय से परभाव का कर्त्ता है तथा जिसप्रकार निश्चय से जीव अपने भाव का कर्त्ता है और व्यवहार से परभाव का कर्त्ता है तथा जिसप्रकार दोनों नयों से जीव को ही सुख-दुःख आदि का भोक्ता कहा जाता है। परद्रव्यों में चेतनत्व के अभाव के कारण जीव ही सुखदुःख का भोक्ता है एवं ज्ञानी ज्ञानभाव के कारण राग-द्वेष का हर्त्ता है। इसी बात को गुरुदेव श्री कानजी स्वामी इसप्रकार कहते हैं कि “वस्तुतः द्रव्यकर्म अपने परिणामों अर्थात् ज्ञानावरणादि परिणामों के उपादान कर्त्ता हैं तथा व्यवहार से जीव के राग-द्वेषादि के भाव कर्त्ता कहे जाते हैं। (135) जीव द्रव्यास्तिकाय (गाथा २७ से ७३) २५३ इसीप्रकार जीव द्रव्य अपने अशुद्ध चेतनात्मक भावों का उपादान रूप से कर्त्ता है, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म को अशुद्ध चेतनात्मक भाव निमित्तभूत हैं। इस कारण व्यवहार से जीव द्रव्यकर्म का भी कर्त्ता है। कर्त्ता नहीं; जीव अपने अशुद्ध परिणामों का कर्त्ता है, द्रव्य कर्मों परन्तु जो नवीन कर्म स्वयं के कारण बंधते हैं। उसमें जीव के विकारी परिणाम निमित्त होते हैं। इस कारण जीव द्रव्य कर्मों का कर्त्ता व्यवहार से कहा जाता है। " तात्पर्य यह है कि जिसप्रकार जीव अथवा कर्म निश्चय व्यवहार नयों से एक दूसरे के परस्पर कर्त्ता हैं उसीप्रकार दोनों भोक्ता नहीं है। निश्चय से जीव अपने परिणामों का कर्त्ता है, व्यवहार से जीव जड़ कर्मों काकर्ता है। निश्चय से परमाणु अपने ज्ञानावरणादि पर्यायों का कर्त्ता है, व्यवहार से राग-द्वेष का कर्त्ता है। इसप्रकार कर्त्ता में जीव व कर्म ह्न दोनों में परस्पर निश्चय व व्यवहार लागू पड़ता है; परन्तु इसीप्रकार भोक्तापन में दोनों परस्पर लागू नहीं पड़ते; क्योंकि भोक्तापन अर्थात् हर्ष - शोक का परिणाम अकेले जीवद्रव्य में होता है तथा वह स्वयं चैतन्यस्वरूप है। पुद्गल अचेतन है, उसमें सुख-दुःख के वेदन का गुण नहीं है। इसकारण पुद्गल द्रव्य निश्चय या व्यवहार से भोक्ता नहीं है। १. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद, नं. १५८, गाथा - ६८, दिनांक ५-४-५२, पृष्ठ-५२५६
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy