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________________ २४६ पञ्चास्तिकाय परिशीलन कवि हीरानन्दजी काव्य में कहते हैं ह्र (दोहा) जैसें पुद्गल दरब कै, सहजि बहुत परकार । जैसे करम समूह है, बिना और करतार ।। ३१३ ।। ( सवैया इकतीसा ) जैसें नभ माँहि चन्द - सूरज का निमित्त पाय, नानाकार रूप होई अनदर्व पूरे है । कहूँ साँझ फूले कहूँ वादर अनेक रूप, इन्द्र का धनुष परिवेष चन्द-सूर है ।। तैसे कारमन पुंज लोकाकास माहि भरै हैं, करै काहु नाहिं सदा साहजीक नूर है। जीव का निमित्त पाय, आठकर्मरूप होइ, वस्तु का स्वभाव और मानै सोई - कूर है । । ३१४ ।। ( दोहा ) सोई वस्तु - सुभाव है, जो परभाव न लेइ । पर मिलाप यद्यपि लसै तदपि आपरस देइ ।। ३१५ ।। जिसप्रकार पुद्गल द्रव्य सहजभाव से स्वयं ही अनेक प्रकार से परिणमित होता है, उसीप्रकार कर्म समूह भी सहज ही बिना कर्ता के स्वयमेव परिणमनशील है। जिसतरह आकाश में चन्द्र एवं सूर्य का निमित्त पाकर अणु स्वयं नाना रूप से परिणमता है तथा जिसप्रकार आकाश में इन्द्र धनुष के रूप में जो आकृति बनती है, वह स्वतः हो सकती है, उसीप्रकार आकाश में जो कार्माण समूह भरे हुए हैं, उन्हें किसी ने बनाया नहीं है। वे जीव के भावों ( 132 ) जीव द्रव्यास्तिकाय (गाथा २७ से ७३) २४७ का निमित्त पाकर आठ कर्म के रूप में स्वतः परिणमित होकर रहते हैं। यही वस्तु का स्वरूप है । इसी बात को गुरुदेव श्री कानजीस्वामी कहते हैं कि ह्न “जैसे पुद्गल द्रव्यों के नाना प्रकार के भेदों से परिणत स्कन्ध अन्य द्रव्यों के द्वारा न किए जाकर अपनी स्वयं की शक्ति से उत्पन्न हुए स्कन्धों के रूप में देखे जाते हैं, वैसे ही कर्मों की विचित्रता है। जिसतरह पुद्गलद्रव्य के जो अनेक प्रकार के स्कन्ध देखे जाते हैं, वे स्कंध स्वयं के कारण हुए हैं, आत्मा के कारण या अन्य किसी दूसरे द्रव्यों के कारण नहीं, उसीप्रकार कर्मों की विचित्रता समझना । यद्यपि जितनी मात्रा में जीव राग करता है, उतनी मात्रा में ही कर्म बँधते हैं तो भी जीव जब उनका कर्त्ता नहीं है तो फिर जीव शरीर का या बाह्य पदार्थों का कर्त्ता कैसे हो सकता है? नहीं हो सकता।" सम्पूर्ण कथन करने का तात्पर्य यह है कि ह्न कर्मों की जो विचित्रता है, प्रकृति, प्रदेश आदि रूप से बहुप्रकरता है, वह प्रकृति- प्रदेश-स्थिति एवं अनुभागरूप विचित्रता जीवकृत नहीं है, पुद्गलकृत ही है। १. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद, नं. १४६, गाथा- ६६, दिनांक २७-३-५२, पृष्ठ- १२४४
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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