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________________ २४० पञ्चास्तिकाय परिशीलन है। इसीप्रकार पुद्गल स्कन्ध भी अतिप्रगाढ़ रूप से भरे हुए हैं। वे अतिसूक्ष्म भी हैं और अतिस्थूल भी हैं। उनकी संख्या भी अमाप है। दो परमाणुओं के स्कन्ध से लगाकर अनन्त परमाणुओं के स्कन्ध अनेक विचित्रता लिए हुए हैं। औदारिक, कार्माण एवं तैजस शरीर के परमाणुओं के स्कन्ध भी ठसाठस भरे हुए हैं। जिसतरह जगत में मकानों का प्लास्टर जुदी - जुदी जाति का होता है। वह अपने-अपने कारण से होता है, कारीगर से नहीं होता, उसीप्रकार अनेक प्रकार की विचित्रता वाले परमाणु के स्कन्ध स्वयं के कारण होते हैं, अन्य के कारण नहीं । निगोदिया जीव चाहे नीचे हों या सिद्धशिला पर हों तो भी कर्म बाँधते ही हैं तथा कर्मों का नाश कर सिद्धशिला में रहने वाले सिद्ध (मुक्त) जीव कर्म नहीं बाँधते । केवली समुद्घात करते समय जहाँ केवली हैं, वहीं निगोद के जीव भी हैं। केवली भगवान को योग के कारण एक समय को कर्म आते हैं और दूसरे समय खिर जाते हैं तथा उसी स्थान पर रहनेवाले निगोदिया जीव मोहनीय कर्म का बंध करते हैं। एक ही क्षेत्र में रहने वाले मुनि अमुक बंध बांधते हैं तथा अज्ञानी अन्य प्रकार के कर्म बांधते हैं। " इसप्रकार इस गाथा में कहा है कि ह्न जीवों की पात्रता एवं धर्म एवं अधर्म के भावों के आधार पर कर्मों का बन्ध एवं निर्जरा आदि होते हैं, क्षेत्र के कारण नहीं। तथा गाथा में भी यही कहा है कि ह्न तीनों लोक सर्वत्र विविध प्रकार के अनन्तानन्त सूक्ष्म और बादर पुद्गलों से भरा है। • १. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद, गाथा- ६३, पृष्ठ- १२३९, दिनांक २६-३-५२ ( 129 ) गाथा - ६५ विगत गाथा में कहा है कि ह्न कर्म योग्य पुद्गल वर्गणायें अंजनचूर्ण से भरी हुई डिब्बी के समान समस्त लोक में व्याप्त हैं, इसलिए जहाँ आत्मा है, वहीं कहीं से लाये बिना ही वे सूक्ष्म व स्थूल पुद्गल वर्गणायें भी स्थित हैं। अब प्रस्तुत गाथा में कहते हैं कि ह्र जब आत्मा अपने भाव को करता है, तब वहाँ रहने वाले पुद्गल अपनी तत्समय की योग्यता से जीव में अवगाहरूप से प्रविष्ट होकर कर्मभाव को प्राप्त होते हैं। मूल गाथा इसप्रकार है अत्ता कुदि भावं तत्थ गदा पोग्गला सभावेहिं । गच्छंति कम्मभावं अण्णण्णोगाहमवगाढा || ६५ ।। (हरिगीत) आतम करे क्रोधादि तब पुद्गल अणु निजभाव से । करमत्व परिणत होंय अर अन्योन्य अवगहान करें ॥६५॥ आत्मा जब अपने मोहराग-द्वेषरूप भावों को करता है, तब वहाँ रहनेवाले पुद्गल कर्म अपने भावों से जीव में विशिष्ट प्रकार से अन्योन्य अवगाहरूप से प्रविष्ट हुए कर्मभाव को प्राप्त होते हैं। आचार्य श्री अमृतचन्द समय व्याख्या टीका में यह बताते हैं कि ह्न " अन्य द्वारा किये बिना कर्म की उत्पत्ति किस प्रकार होती है? आत्मा वास्तव में संसार अवस्था में पारिणामिक चैतन्य स्वभाव को छोड़े बिना ही अनादि बन्धन वद्ध होने से अनादि मोह - राग-द्वेष द्वारा रागादि अविशुद्ध भावों से परिणमित होता है। वह संसारी आत्मा जहाँ और जब अपने भावों को राग-द्वेष रूप करता है, वहाँ और उसी समय उसी भाव को निमित्त बनाकर कार्माणवर्गणायें परस्पर अवगाह रूप से प्रविष्ट हो कर्मपने को प्राप्त होती हैं।
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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