SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 124
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३० पञ्चास्तिकाय परिशीलन मन रहता है। शुद्धात्मा के स्वरूप को एवं केवलज्ञान स्वभाव को जिसने जान लिया है, उनकी कवि वंदना करते हैं। उक्त भावों को व्यक्त करते हुए गुरुदेवश्री कानजीस्वामी कहते हैं कि ह्न “यहाँ मूल गाथा में तथा श्री जयसेनाचार्य की टीका में राग-द्वेष परिणामों को जीव का स्वभाव कहा है; क्योंकि आत्मा स्वयं स्वतंत्रप उक्त राग-द्वेष के भावों को करता है। 'कर्म के कारण जीव विकार करता है' यह तो निमित्त का कथन है। तथा जीव जितनी मात्रा में राग-द्वेष करता है, उतने प्रमाण में जड़कर्म बंधते हैं ह्र ऐसा होते हुए भी जड़कर्म की अवस्था का कर्ता आत्मा नहीं है। जड़ की अवस्था तो जड़ के कारण होती है। अज्ञानी ऐसा मानता है कि ह्न कर्म के कारण विकार होता है। उसकी यह मान्यता ठीक नहीं है, आत्मा तो त्रिकाल स्वतंत्र है। उसकी समयसमय होने वाली विकारी या अविकारी पर्यायें भी स्वतंत्र है। यदि एक पर्याय को पराधीन माना जावे तो द्रव्य भी पराधीन हो जायेगा । " उक्त कथन में स्वामीजी ने जो राग-द्वेष के परिणामों को स्वभाव कहा है, वह एक तो संसारी जीव अपेक्षा से कहा है, दूसरे राग-द्वेष जीव को ही होते हैं, जड़ में नहीं। तीसरे विभाव स्वभाव को भी स्वभाव कहने का व्यवहार हैं। जैसे अमुक व्यक्ति क्रोधी स्वभाव है आदि । इसप्रकार इस गाथा में यह कहा है कि ह्न आत्मा वस्तुतः अपने स्वभाव को करता हुआ अपने भावों का कर्त्ता है तथा पुद्गल कर्मों का कर्त्ता नहीं है। १. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १५४, गाथा ६१, पृष्ठ-१२२६ दि. २४-३-५२ (124) गाथा - ६२ विगत गाथा में ऐसा कहा है कि ह्न अपने स्वभाव-विभाव परिणामों को करता हुआ जीव अपने परिणामों का ही कर्त्ता है, पुद्गलमयी द्रव्यकर्मों का कर्त्ता नहीं है। अब प्रस्तुत गाथा में कहते हैं कि ह्न कर्म अपने स्वभाव से अपने को करते हैं तथा जीव भी कर्म स्वभावभाव से अर्थात् औदयिक आदि भावों से बराबर अपने को करता है। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र कम्मं पि सगं कुव्वदि सेण सहावेण सम्ममप्पाणं । जीवो विय तारिसओ कम्मसहावेण भावेण । ६२ ।। (हरिगीत) कार्मण अणु निज कारकों से करम पर्यय परिणमें। जीव भी निज कारकों से विभाव पर्यय परिणमें || ६२ ॥ 'कर्म अपने स्वभाव से अपने को करते हैं और जीव भी कर्म स्वभाव भाव से अपने को करता है। आचार्य श्री अमृतचन्द्र विशेष स्पष्टीकरण करते हुए टीका में कहते हैं। कि ह्न निश्चयनय से अभिन्नकारक होने से कर्म व जीव स्वयं स्वरूप से अपने-अपने भाव के कर्त्ता हैं। एक दूसरे के कर्त्ता नहीं । निश्चय से जहाँ कर्म को कर्त्ता कहा वहाँ जीव कर्त्ता नहीं है और जीव रूप कर्त्ता के कर्म कर्त्ता नहीं है जहाँ कर्मों के कर्त्तापन है वहाँ जीव कर्त्ता नहीं है और जहाँ जीव कर्त्ता है वहाँ कर्मों को कर्तृत्व नहीं । भावार्थ यह है कि ह्न पुद्गल के परिणमन में पुद्गल ही षट्कारक रूप हैं। (१) पुद्गल स्वतंत्ररूप से द्रव्यकर्म को करनेवाला होने से पुद्गल
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy