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________________ २१८ पञ्चास्तिकाय परिशीलन "संसारी जीवों के द्रव्य कर्मों का अनादि से सम्बन्ध है। वे संसारी जीव उन कर्मों में उदय के हर्ष-शोक के परिणाम करते हैं ह्र ऐसा कहा जाता है, जैसे कि जब जीव रोटी-दाल, भात का उपभोग करते हैं तब उस प्रकार के विकारी परिणामों को जीव भोगते हैं। उसमें वे रोटी, दाल-भात रूप संयोगी पर पदार्थ निमित्त हैं, इसलिए उन पर पदार्थों को भोगते हैं - ऐसा व्यवहार से कहने में आता है। इसीप्रकार जीव हर्ष - शोक को भोगता है, यह निश्चय है तथा जड़ कर्म को भोगता है, यह उपचार कथन है । " तात्पर्य यह है कि ह्न कर्म जीव में राग की प्रेरणा कराता नहीं है अर्थात् कर्म के उदय के अनुसार भाव नहीं होते, किन्तु अपनी तत्समय की योग्यता से जैसे अपने परिणाम हों, उन्हीं परिणामों का कर्त्ता जीव होता है। स्वभावकर्त्ता तो जीव है ही, किन्तु विकार भी स्वतंत्रपने जीव ही करता है, किन्तु वह विकार जीव का स्वरूप नहीं है। त्रिकाली शुद्ध स्वरूप ही आत्मा का वास्तविक स्वरूप है ह्र ऐसा समझकर उस शुद्ध आत्मा को ही जो उपादेय मानता है, उस यथार्थ दृष्टिवंत को ही धर्म होता है। इसीप्रकार जीव हर्ष - शोक को भोगता है, यह निश्चय है तथा कर्म को भोगता है, यह उपचार कथन है। १. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १५०, दिनांक २०-३-५२ पृष्ठ ११९५ (118) गाथा - ५८ विगत गाथा में कहा गया है कि कर्म को वेदता हुआ जीव जैसे भाव करता है वह उस भाव का उस प्रकार से कर्त्ता होता है। अब प्रस्तुत गाथा में कहते हैं कि ह्र पुद्गल कर्म के बिना जीव के उदय, उपशम क्षय और क्षयोपशम नहीं होते। इसलिए ये चारों जीवभाव कर्म कृत हैं। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र कम्मेण बिणा उदयं जीवस्स ण विज्जदे उवसमं वा । खइयं खओवसमियं तम्हा भावं तु कम्मकदं ।। ५८ ।। (हरिगीत) पुद्गलकरम विन जीव के उदयादि भाव होते नहीं । इससे कम कृत कहा उनको वे जीव के निजभाव हैं ॥ ५८ ॥ कर्म बिना जीव को उदय, उपशम, क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव नहीं होते। इसलिए ये चारों ही भाव कर्मकृत हैं। आचार्य अमृतचन्द्र टीका में कहते हैं कि ह्न यहाँ निमित्त मात्र होने से द्रव्य कर्मों को औदयिकादि भावों का कर्त्तापना कहा है; क्योंकि द्रव्य कर्मों के बिना जीव को औदयिक आदि चार भाव नहीं होते। इसलिए क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक तथा औपशमिक भावों को कर्मकृत कहा है। पारिणामिक भाव तो अनादि अनंत निरुपाधिक - स्वाभाविक ही है। यहाँ यह प्रश्न संभव है कि ह्न क्षायिक व उपशम को कर्मकृत किस अपेक्षा से कहा ? समाधान यह है कि ह्र क्षायिक भाव भी तो कर्मक्षय द्वारा होता है, इसलिए कर्मकृत हैं तथा औपशमिकभाव कर्म के उपशम से उत्पन्न होने के कारण कर्मकृत ही हैं। इस कारण इन्हें भी कर्मकृत मानना योग्य है।
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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