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________________ गाथा १ सर्वप्रथम ग्रन्थ के आरंभ में ग्रन्थकर्ता आचार्य कुन्दकुन्ददेव जिनेन्द्र भगवान को नमस्कार करते हैं। मूलगाथा इसप्रकार है ह्र इंदसदवंदियाणं तिहुवणहिदमधुरविसदवक्काणं। अंतातीदगुणाणं णमो जिणाणं जिदभवाणं ।।१।। (हरिगीत) शतइन्द्रवन्दित त्रिजग हितकर,विशद मधुजिनकेवचन। अनन्त गुणमय भव विजेता, जिनवरों को है नमन ||१|| जो सौ इन्द्रों से वन्दित हैं; जिनकी वाणी तीन लोक को हितकर, मधुर एवं विशद है, निर्मल है, स्पष्ट है; जिनमें अनन्त गुण वर्तते हैं और जिन्होंने भव पर विजय प्राप्त की है; उन जिनवर को नमस्कार हो। इस गाथा के भाव को आचार्य अमृतचन्द समयव्याख्या टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं। “अब यहाँ जिनवरदेवों को नमस्कार हो - ऐसा कहकर शास्त्र के आदि में जिनेन्द्र भगवान को भावनमस्कार रूप असाधारण मंगल किया है। जो अनादि प्रवाह से प्रवर्तते हुए अनादिकाल से चले आ रहे हैं, वे जिनेन्द्र भगवान देवाधिदेवपने के कारण सौ-सौ इन्द्रों से बन्दित हैं; जिनेन्द्र देव की वाणी अर्द्ध-मध्य एवं अधोलोक के समस्त प्राणियों को विविध विशुद्ध आत्मतत्व की उपलब्धि करानेवाली होने से हितकर है; परमार्थिक रसिकजनों के मन को हरनेवाली होने से मधुर हैं तथा “समस्त शंकादि दोषों के स्थान दूर कर देने से विशद हैं, निर्मल हैं, स्पष्ट हैं ह्र ऐसा कहकर यह कहा है कि वे जिनेन्द्र भगवान समस्त वस्तु के यथार्थ स्वरूप के उपदेशक होने से विचारवंत बुद्धिमान पुरुषों से बहमान प्राप्त करने के योग्य हैं। षड्द्रव्य मंगलाचरण (गाथा १ से २६) 'अनन्तगुणमय' अर्थात् जो क्षेत्रकाल से अनन्त, परम चैतन्य शक्ति के विकास रूप पुष्पवंत हैं ह्र ऐसा कहकर जिनको परम अद्भुत ज्ञानातिशय प्रगट होने के कारण ज्ञानातिशय को प्राप्त सर्व योगीन्द्रों से वंद्य है। उक्त कथन के भावार्थ में भव अर्थात् संसार पर जिन्होंने विजय प्राप्त की है - ऐसा कहकर कृतकृत्यपना प्रगट हो जाने से वे ही जिन अन्य अकृतकृत्य जीवों को शरणभूत हैं - ऐसा उपदेश दिया है। - ऐसा सर्वपदों का तात्पर्य है। जिनभगवन्तों के निम्नांकित चार विशेषणों का वर्णन करके उन्हें भाव नमस्कार किया गया है। जो इसप्रकार हैं - प्रथम तो, जिनभगवन्त सौ इन्द्रों से वंद्य हैं। जिनेन्द्र भगवान के अतिरिक्त अन्य कोई भी देव सौ इन्द्रों से वन्दित नहीं है। दूसरे ह्र जिनभगवान की वाणी तीन लोक को शुद्ध आत्मस्वरूप की प्राप्ति का उपाय दर्शाती है, इसलिए वे हितकर हैं। तीसरे ह्र वीतराग निर्विकल्प समाधि से उत्पन्न सहज-अपूर्वपरमानन्दरूप वह वाणी मधुर अर्थात् रसिकजनों के मन को हरती है, मुदित करती है; इसलिए मधुर है। ___ चौथे ह्न विशद् अर्थात् शुद्ध जीवास्तिकायादि सात तत्त्व, नव पदार्थ, छह द्रव्य और पाँच अस्तिकाय का संशय-विमोह-विभ्रम रहित निरूपण करती है; इसलिये पूर्वापर विरोधादि दोष रहित होने से युगपद् सर्व जीवों को अपनी-अपनी भाषा में स्पष्ट अर्थ का प्रतिपादन करती है, इसलिए विशद-स्पष्ट है। इसप्रकार जिनेन्द्र भगवान की वाणी प्रमाणभूत है। गणधरदेवादि योगीन्द्रों से भी वंद्य हैं। कृतकृत्यपने के कारण वे अरहन्तदेव ही अन्य अकृतकृत्य जीवों को शरणभूत हैं, दूसरा कोई नहीं। इसप्रकार चार विशेषणों से युक्त जिनभगवन्तों को ग्रन्थ के आदि में भाव नमस्कार करके मंगल किया है। प्रश्न : जो शास्त्र स्वयं ही मंगल है, उसका मंगल किसलिए किया जाता है? (11)
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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