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________________ पञ्चास्तिकाय परिशीलन २०० हैं। उनकी अनादि-अनन्त धारावाही प्रवृत्ति को समवाय सम्बन्ध कहते हैं। निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध अथवा संयोग सम्बन्ध दो द्रव्यों की प्रथकता बतलाते हैं। आत्मा एवं उसके गुणों में संयोग सम्बन्ध नहीं है, किन्तु समवाय अथवा तादात्म्य सम्बन्ध है । अन्य गुण गुण को जुदा कहा तथा वे बाद में मिले ह्न ऐसा कहकर वे उससे मिलने को समवाय सम्बन्ध कहते हैं, किन्तु उनका यह कथन यथार्थ नहीं है। अनादि-अनन्त आत्मा में गुण एकरूप तादात्म्य भाव से हैं। जैनमत में उसे ही समवाय सम्बन्ध कहते हैं। " सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि संबंध दो प्रकार का होता है ह्र (१) संयोग सम्बन्ध अथवा निमित्त नैमित्तिक संबंध। (२) समवाय सम्बन्ध या तादात्म्य सम्बन्ध । जब द्रव्य का भाव, द्रव्य के अनन्त गुणों का भाव, अनन्त पर्यायों का भाव ह्न इस प्रकार जहाँ अनेक भाव एकरूप होते हैं, उसे ही जिनमत में समवाय सम्बन्ध या तादात्म्य कहते हैं। जैनमतानुसार तादात्म्य सम्बन्ध को ही समवाय सम्बन्ध कहते हैं, जोकि एक ही द्रव्य में गुण-गुणी सम्बन्ध के रूप में होता है । अन्यमत द्वारा समवाय सम्बन्ध यथार्थ नहीं है। वस्तु (द्रव्य) में संज्ञा संख्या आदि के भेद होते भी वस्तु एक है। द्रव्य व गुण अप्रथक् हैं, इसकारण उनमें अयुततिसिद्ध सम्बन्ध है, युतसिद्ध नहीं है। १. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १४६, पृष्ठ ११६५, दिनांक १७-३-५४ के बाद (109) गाथा - ५१-५२ पिछली गाथा में कह आये हैं कि ह्न जहाँ अनेक भाव एक रूप होते हैं, उसे ही समवाय सम्बन्ध या तादात्म्य सम्बन्ध कहते हैं। वही अपृथकपना है, अयुतसिद्ध सम्बन्ध है। यह सम्बन्ध एक ही द्रव्य के गुणों में होता है। अब इस गाथा में कहते हैं कि ह्न जैसे वर्ण आदि पुद्गल के बीस गुण यद्यपि परमाणु से अपृथक् हैं, तथापि कथन विशेष से वे अन्यत्व को भी बताते हैं ह्र मूलगाथा इस प्रकार है ह्र वण्णरसगंधफासा परमाणुपरूविदा विसेसेहिं । दव्वादो य अणण्णा अण्णत्तपगासगा होंति ।। ५१ ।। दंसणणाणाणि तहा जीवणिबद्धाणि णण्णभूदाणि । ववदेसदो पुधत्तं कुव्वंति हि णो सभावादो ।। ५२ ।। (हरिगीत) ज्यों वर्ण आदिक बीस गुण परमाणु से अप्रथक हैं। विशेष के व्यपदेश से वे अन्यत्व को द्योतित करें ॥ ५१ ॥ त्यों जीव से संबद्ध दर्शन ज्ञान जीव अनन्य हैं। विशेष के व्यपदेश से वे अन्यत्व को घोषित करें ॥५२॥ परमाणु में प्ररूपित किए जाने वाले वर्ण-रस-गंध-स्पर्श द्रव्य से अनन्य वर्तते हुए विशेषों द्वारा अन्यत्व को प्रकाशित करते हैं, परन्तु वे वर्ण आदि स्वभाव से अन्यरूप नहीं है तथा जीव में निबद्ध दर्शन - ज्ञान अनन्यवर्तते हुए कथन द्वारा प्रथक्त्व को दर्शाते हैं, स्वभाव से पृथक् नहीं है। इसी बात का स्पष्टीकरण करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र अपनी तत्त्वप्रदीपिका अपर नाम समय व्याख्या टीका में कहते हैं कि ह्न 'स्पर्श
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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