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________________ १९६ पञ्चास्तिकाय परिशीलन जो ऐसा मानते हैं कि कर्म टले तो केवलज्ञान हो; पर उनका ऐसा मानना भी मिथ्या है, क्योंकि वे आत्मा से केवलज्ञान होना नहीं मानते।" इसप्रकार गुरुदेवश्री कानजीस्वामी ने अनेक तर्क और युक्तियों से अन्यमत की मिथ्या मान्यताओं का निराकरण करके केवलज्ञान के यथार्थ स्वरूप का एवं उसके प्रगट होने की यथार्थ विधि का प्रतिपादन किया है। तत्वार्थसूत्र के नववें अध्याय के २७वें सूत्र में स्पष्ट कहा है कि ह्र "उत्तम संहननस्यैकाग्र चिन्तानिरोधो अन्तर्मुहूतात्" उत्तम संहनन वाले मुनिराजों के लगातार एक अन्तमुहूर्त तक आत्मा के स्वरूप में लीन होने से घातिया कर्मों का अभाव होकर केवलज्ञान प्रगट हो जाता है। हम भी सम्यक् मार्ग के अनुसरण से इस दिशा में अग्रसर हो सकते हैं। गाथा-५० पिछली गाथा में कह आये हैं कि ह्र ज्ञान व आत्मा में अन्य मत मान्य समवाय सम्बन्ध नहीं है। अन्यमतों में एकमत ऐसा भी है जो मानता है कि 'आत्मा और ज्ञान भिन्न-भिन्न हैं, दोनों के बीच ऐसा समवाय सम्बन्ध है, जिससे वे दोनों में एकपने का व्यवहार होता है। उक्त मान्यता का खण्डन कर आत्मा और ज्ञान में तादात्म्य सिद्ध सम्बन्ध बताया है। अब इस गाथा में समवाय सम्बन्ध का स्वरूप समझाकर अन्यमत द्वारा मान्य आत्मा के साथ समवाय सम्बन्ध का निषेध करते हैं। मूलगाथा इस प्रकार है ह्र समवत्ती समवाओ अपुधब्भूदो य अजुद सिद्धो य। तम्हा दव्व गुणा णं, अजुदा सिद्धि ति णिद्दिट्ठा ।।५०।। (हरिगीत) समवर्तिता या अयुतता अप्रथकत्व या समवाय है। सब एक ही है ह सिद्ध इससे अयुतता गुण-द्रव्य में ||५०|| समवाय शब्द का अर्थ समवर्तीपना है, समवर्तीपना ही समवाय है, वही अपृथक्पना और अयुतसिद्धपना है। इसलिए द्रव्य और गुणों की अयुद्धसिद्धि कही है। जैसा कि आत्मा और उसके गुणों में होता है, उनका यह संबंध अनादि-अनन्त तादात्म्य मय सहवृत्ति होने से अयुतसिद्धि है, अन्यमत द्वारा मान्य प्रथक् पदार्थों के समवाय संबंधी यथार्थ नहीं है। जैनमत के अनुसार तादात्म्य सम्बन्ध एक ही द्रव्य के गुणों में होता है, इसी का दूसरा नाम अयुत सिद्ध समवाय सम्बन्ध है। जैनदर्शन के अनुसार द्रव्य व गुणों के कभी भी प्रथक्पना नहीं होता। इसलिए द्रव्य व गुणों में अयुत सिद्धि है, युतसिद्ध सम्बन्ध नहीं है। ___जीवराज ने समतारानी से कहा कि “समता ! यदि सम्यग्दर्शन मोक्ष महल की प्रथम सीढ़ी है तो मैं दावे से यह कह सकता हूँ कि "वस्तु स्वातंत्र्य का सिद्धान्त उस मोक्ष महल की नींव का मजबूत पत्थर है। जिस तरह गहरी जड़ों के बिना वटवृक्ष सहस्त्रों वर्षों तक खड़ा नहीं रह सकता, गहरी नीव के पत्थरों के ठोस आधार बिना बहु-मंजिला महल खड़ा नहीं हो सकता; उसी प्रकार वस्तु स्वातंत्र्य एवं उसके पोषक चार अभाव, पाँच समवाय, षटकारक, परपदार्थों का अकतृत्व का सिद्धान्त, कारण-कार्य आदि की ठोस नींव के बिना मोक्ष महल खड़ा नहीं हो सकेगा। अतः इन सिद्धान्तों का सर्वाधिक प्रचार-प्रसार एवं परिचय होना ही चाहिए।" - नींव का पत्थर, पृष्ठ-२१ (107)
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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