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________________ गाथा-४७ विगत गाथा में कह आये हैं कि ह्र जो द्रव्य के व्यपदेश, संस्थान, संख्यायें और विषय होते हैं, वे व्यपदेश (कथन) आदि द्रव्य एवं गुणों के अन्यपने में तथा अनन्यपने में भी होते हैं। प्रस्तुत गाथा में कहते हैं कि ह्र जिसप्रकार धन और ज्ञान पुरुष को धनी व ज्ञानी करते हैं, उसीप्रकार ज्ञानीपुरुष के साथ पृथक्त्व तथा एकत्व का व्यवहार है। मूलगाथा इसप्रकार है ह्र णाणं धनं च कुवदि धणिणं जह णाणिणं च दुविधेहिं । भण्णति तह पुधत्तं एयत्तं चावि तच्चण्ह ।।४७।। (हरिगीत) धन से धनी अरु ज्ञान से ज्ञानी विविध व्यपदेश है। इस भाँति ही पृथकत्व अर एकत्व का व्यपदेश है।।४७॥ "जिसप्रकार धन व ज्ञान से पुरुष धनी व ज्ञानी कहे जाते हैं, उसीप्रकार एक भिन्न पदार्थ के साथ और दूसरे अभिन्न पदार्थ के साथ ह्र ऐसा दो प्रकार से व्यपदेश है। ऐसा तत्वज्ञजन कहते हैं। आचार्य अमृत उक्त गाथा में टीका करते हुए कहते हैं कि ह्र ये वस्तुत्व रूप से भेद व अभेद का उदाहरण है। जिसप्रकार (१) भिन्न अस्तित्व से रचित (२) भिन्न संस्थान वाला (३) भिन्न संख्या वाला और (४) भिन्न विषय में स्थित धनिक पुरुष को धनी ह्र ऐसा व्यपदेश पृथक् से किया जाता है तथा जिसप्रकार (१) अभिन्न अस्तित्व से रचित (२) अभिन्न संस्थान वाला (३) अभिन्न संख्या वाला और (४) अभिन्न विषय में स्थित ज्ञानी ऐसा व्यपदेश एकत्व प्रकार से करता है, उसीप्रकार ज्ञानगुण से आत्मा ज्ञानी कहलाता है। जीव द्रव्यास्तिकाय (गाथा २७ से ७३) १८५ इसके भावार्थ में कहते हैं कि ह्र व्यवहार दो प्रकार का है (१) पृथकत्व (२) एकत्व । जहाँ भिन्न दो द्रव्यों में एकता सम्बन्ध दिखाया जाय उसे पृथकत्व व्यवहार कहा जाता है। और जहाँ एक वस्तु में भेद दिखाया जाय उसे एकत्व व्यवहार कहते हैं। यह दोनों प्रकार का सम्बन्ध धनधनी, ज्ञान-ज्ञानी में व्यपदेशादि चार प्रकार से दिखाया जाता है। धन अपने नाम, संस्थान, संख्या, विषय ह्र इन चार भेदों से जुदा है और पुरुष अपने नाम, संस्थान, संख्या, विषय रूप चार भेदों से जुदा है, परन्तु धन के संबंध से पुरुष धनी कहलाता है। इसी को पृथकत्व व्यवहार कहा जाता है। ज्ञान और ज्ञानी में एकता है, परन्तु नाम, संख्या, संस्थान विषयों से ज्ञान का भेद किया जाता है। वस्तु स्वरूप को भलीभाँति जानने के कारण उस ज्ञान के समन्ध से ज्ञानी नाम पाता है। इसको एकत्व व्यवहार कहते हैं। कवि हीरानन्दजी काव्य की भाषा में कहते हैं ह्न (दोहा) ज्ञान थकी ज्ञानी लसै, धन तैं हैं धनवान । एक माहिं अरु आन महिं यौं दोनों विधि जान ।।२४८ ।। (सवैया इकतीसा) जैसे धनपति-ज्ञानी दोई भिन्न-भिन्न अस्ति ताकै, भिन्न-भिन्न संस्थान भिन्न संख्य गनै है। भिन्न विष दोनों माँहि एक परदेस नाहिं, धनी ऐसा नाम पावै अन्य एक बनै है ।। तैसें ज्ञान जीव माँहि एक अस्ति एक संस थान एक संख्या एक विषै एक भेद बनें है। 'ज्ञानी' व्यपदेस एक एकता प्रकार माहिं, तैसैं सब भेद नीके श्री जिनेस भनै है ।।२४९ ।। (101)
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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