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________________ १८४ नियमसार अनुशीलन ( हरिगीत ) अज्ञानतम को सूर्यसम सम्पूर्ण जग के अधिपति । शान्तिसागर वीतरागी अनूपम सर्वज्ञ जिन ॥ संताप और प्रकाश युगपत् सूर्य में हों जिसतरह । केवली के ज्ञान-दर्शन साथ हों बस उसतरह || २७३ || सम्पूर्ण जगत के एक नाथ, धर्मतीर्थ के नायक, अनुपम सर्वज्ञ भगवान के ज्ञान और दर्शन चारों ओर से निरंतर एक साथ वर्तते हैं। अन्धकार समूह के नाशक, तेज की राशिरूप सूर्य में जिसप्रकार उष्णता और प्रकाश एक साथ वर्तते हैं और जगत के जीवों को नेत्र प्राप्त होते हैं अर्थात् जगत जीव प्रकाश हो जाने से देखने लगते हैं; उसीप्रकार सर्वज्ञ भगवान के ज्ञान और दर्शन एक साथ होते हैं और सर्वज्ञ भगवान के निमित्त से जगत के जीव भी वस्तुस्वरूप देखने-जानने लगते हैं। यहाँ एक साथ देखने-जानने के स्वभाव के उल्लेखपूर्वक सर्वज्ञ भगवान की महिमा के गीत गाये गये हैं। उन्हें तीन लोक के नाथ, धर्मतीर्थ के नेता और अज्ञानान्धकार के नाशक बताया गया है || २७३ ॥ दूसरा छन्द इसप्रकार है ह्र ( वसंततिलका ) सद्बोधपोतमधिरुह्य भवाम्बुराशि - मुल्लंघ्य शाश्वतपुरी सहसा त्वयाप्ता । तामेव तेन जिननाथपथाधुनाहं याम्यन्यदस्ति शरणं किमिहोत्तमानाम् ।।२७४ ।। ( हरिगीत ) सद्बोधरूपी नाव से ज्यों भवोदधि को पारकर । शीघ्रता से शिवपुरी में आप पहुँचे नाथवर ॥ मैं आ रहा हूँ उसी पथ से मुक्त होने के लिए। अन्य कोई शरण जग में दिखाई देता नहीं || २७४ || हे जिननाथ सम्यग्ज्ञानरूपी नाव में सवार होकर आप भवसमुद्र को पारकर शीघ्रता से मुक्तिपुरी में पहुँच गये हैं। अब मैं भी आपके 93 गाथा १६० : शुद्धोपयोगाधिकार १८५ मार्ग से उक्त मुक्तिपुरी में आता हूँ; क्योंकि इस लोक में उत्तम पुरुषों को उक्त मार्ग के अतिरिक्त और कौन शरण है ? तात्पर्य यह है कि मुक्ति प्राप्त करने का अन्य कोई मार्ग नहीं है। इस छंद का भाव गुरुदेवश्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र “यहाँ मुनिराज कहते हैं कि हे नाथ! तुम तो मोक्ष चले गये और हमें अभी भी विकल्प वर्तता है। जिननाथ! अभी मैं उस मार्ग पर हूँ, जिसमार्ग से आप शाश्वतपुरी गये हो। मैं इसलिये इस मार्ग पर हूँ; क्योंकि इस लोक में उत्तमपुरुषों के लिये इस मार्ग के अलावा अन्य कोई शरण नीं है। वे आगे कहते हैं कि मैं संसार में नहीं रहूँगा तथा मोक्ष के लिये अन्य से पूछने की भी आवश्यकता नहीं है; क्योंकि नित्य ध्रुवपदार्थ के अवलम्बन से प्रगट होनेवाले शुद्धदशारूपमार्ग से ही भगवान शाश्वतपुरी को प्राप्त हुये हैं। तथा मैं वहाँ जा रहा हूँ। मैं एक-दो भव बाद ही मुक्ति को प्राप्त करूँगा - इसमें कोई संदेह नहीं है अर्थात् मार्ग प्रगट हो जाने पर पूर्णता प्रगट हुये बिना नहीं रहती । आत्मा को सर्वज्ञकथित मार्ग के अलावा अन्य कोई शरण नहीं है। आत्मा परिपूर्ण प्रभु है, उसके अवलम्बन से पूर्णदशा एवं स्वभाव की एकता होने के बाद समस्त दुःख नष्ट हो जाते हैं। इसे समझे बिना अनेक प्रकार की क्रिया करने से धर्म नहीं होता है। २" इस छन्द में जिननाथ की स्तुति करते हुए कहा गया है कि जिस मार्ग पर चलकर आपने शाश्वत शिवपुरी प्राप्त की है; अब मैं भी उसी मार्ग से शिवपुरी में आ रहा हूँ; क्योंकि इसके अलावा कोई मार्ग ही नहीं है। उक्त छन्द में लेखक का आत्मविश्वास झलकता है। उन्हें पक्का भरोसा है कि जिनेन्द्र भगवान जिस मार्ग पर चलकर मुक्त हुए हैं; वे भी दृढ़तापूर्वक उसी मार्ग पर चल रहे हैं ।। २७४ ।। तीसरा छन्द इसप्रकार है ह्र १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १३६८ २. वही, पृष्ठ १३६८-१३६९
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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