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________________ १७९ १७८ नियमसार अनुशीलन व्यवहार से भी स्व-पर प्रकाशक है। इसप्रकार ज्ञान निश्चय और व्यवहार ह दोनों से ही स्व-पर प्रकाशक है; प्रमाण से तो स्व-पर प्रकाशक है ही।।१५९|| इसके बाद टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव 'तथा श्रीमद् अमृतचन्द्राचार्य के द्वारा भी कहा गया है' ह्र ऐसा लिखकर एक छन्द प्रस्तुत करते हैं; जो इसप्रकार है ह्र (मंदाक्रांता) बन्धच्छेदात्कलयदतुलं मोक्षमक्षय्यमेतनित्योद्योतस्फुटितसहजावस्थमेकान्तशुद्धम् । एकाकारस्वरसभरतोत्यन्तगंभीरधीरं पूर्ण ज्ञानं ज्वलितमचले स्वस्य लीनं महिम्नि ।।७४।। (रोला) बंध-छेद से मुक्त हुआ यह शुद्ध आतमा, निजरस से गंभीर धीर परिपूर्ण ज्ञानमय। उदित हुआ है अपनी महिमा में महिमामय, अचल अनाकुल अज अखंड यह ज्ञानदिवाकर||७४|| नित्य उद्योतवाली सहज अवस्था से स्फुरायमान, सम्पूर्णतः शुद्ध और एकाकार निजरस की अतिशयता से अत्यन्त धीर-गंभीर पूर्णज्ञान कर्मबंध के छेद से अतुल अक्षय मोक्ष का अनुभव करता हुआ सहज ही प्रकाशित हो उठा और स्वयं की अचल महिमा में लीन हो गया। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस छन्द के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "जो ऐसे केवलज्ञान को नहीं जानता है तथा उसका निर्णय नहीं करता है, उसे सच्चे देव की खबर नहीं है। जो ऐसे केवलज्ञान का असत्य निरूपण करता है, वह तीव्र मिथ्यात्व का सेवन करता है। देव का निर्णय करने के लिए केवलज्ञान के स्वरूप को जानना नितान्त आवश्यक है। गाथा १५९: शुद्धोपयोगाधिकार स्व-परप्रकाशक एवं निर्णयात्मक केवलज्ञान की यहाँ चर्चा चलती है। वह शुद्धोपयोग स्वरूप केवलज्ञान व्यवहार से लोकालोक को जानता है। पर को जानने पर भी ज्ञान पररूप नहीं होता है; अतः पर को व्यवहार से जानता है और निश्चय से अपनी आत्मा को जानता है। ज्ञान स्व को जानता है, यह उसकी स्वप्रकाशकता है तथा ज्ञान के अलावा अन्य गुणों को जानना उसकी परप्रकाशकता है।' ज्ञान और दर्शन दोनों एक ही समय में पर को उसमें तन्मय हुए बिना जानते, देखते हैं; अतः उनका जानना-देखना व्यवहार कहलाता है।" इसप्रकार इस कलश में उस सम्यग्ज्ञानज्योति को स्मरण किया गया है कि जो स्वयं में समाकर, त्रिकालीध्रुव निज भगवान आत्मा का आश्रय कर, केवलज्ञानरूप परिणमित हो गई है। ज्ञानज्योति का केवलज्ञानरूप परिणमित हो जाना ही मोक्ष है।।७४।। इसके बाद टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव तथाहिं' लिखकर एक छन्द स्वयं लिखते हैं; जो इसप्रकार है ह्न (स्रग्धरा) आत्मा जानाति विश्वं हनवरतमयं केवलज्ञानमूर्तिः मुक्तिश्रीकामिनीकोमलमुखकमले कामपीडां तनोति । शोभां सौभाग्यचिह्नां व्यवहरणनयाद्देवदेवो जिनेश: तेनोच्चैर्निश्चयेन प्रहतमलकलि: स्वस्वरूपं स वेत्ति ।।२७२।। (हरिगीत) सौभाग्यशोभा कामपीड़ा शिवश्री के वदन की। बढ़ावें जो केवली वे जानते सम्पूर्ण जग ।। व्यवहार से परमार्थसे मलक्लेश विरहित केवली। देवाधिदेव जिनेश केवल स्वात्मा को जानते ||२७२|| व्यवहारनय से यह केवलज्ञानमूर्ति आत्मा सम्पूर्ण विश्व को वस्तुतः जानता है तथा मुक्तिलक्ष्मीरूपी कामिनी के कोमल मुख कमल पर कामपीड़ा और सौभाग्यचिह्नवाली शोभा को फैलाता है। निश्चयनय 90 १.समयसार : आत्मख्याति, छन्द १९२ १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १३५१ २. वही, पृष्ठ १३५१
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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