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________________ १७४ नियमसार अनुशीलन “यहाँ ज्ञानी को स्व-पर स्वरूप का प्रकाशकपना कथंचित् कहा है। व्यवहारनय से, परमभट्टारक परमेश्वर भगवान; आत्मगुण के घातक घातिकर्मों के नाश से प्राप्त सम्पूर्णत: निर्मल केवलज्ञान और केवलदर्शन के द्वारा, त्रिलोक में रहनेवाले त्रिकालवर्ती सचराचर सभी द्रव्य-गुणपर्यायों को एक समय में जानते-देखते हैं; क्योंकि ‘पराश्रितो व्यवहारः ह्र व्यवहारनय पराश्रित होता है' ह्न ऐसा आगम का वचन है। शुद्धनिश्चय से, महादेवादिदेव सर्वज्ञ वीतराग परमेश्वर के मूलध्यान में; परद्रव्य के ग्राहकत्व-दर्शकत्व, ज्ञायकत्व आदि के विविध विकल्प रूप सेना की उत्पत्ति का अभाव होने से; वे भगवान त्रिकाल निरुपाधि, अमर्यादित नित्य शुद्ध ह्न ऐसे सहज ज्ञान और सहज दर्शन द्वारा निज कारणपरमात्मा को; स्वयं कार्यपरमात्मा होने पर भी देखते-जानते हैं। क्या करके या किसप्रकार? ज्ञान का धर्म तो दीपक के समान स्व-परप्रकाशक है। जिसप्रकार घटादि की प्रमिति से, प्रकाश अर्थात् दीपक (कथंचित्) भिन्न होने पर भी स्वयं प्रकाशस्वरूप होने से स्व और पर को प्रकाशित करता है; उसीप्रकार आत्मा भी ज्योतिस्वरूप होने से, व्यवहार से तीन लोक में रहनेवाले सभी परपदार्थों को तथा स्वयं प्रकाशस्वरूप आत्मा को, स्वयं को प्रकाशित करता है; जानता-देखता है।" उक्त कथन का सार यह है कि व्यवहारनय से केवली भगवान परपदार्थों को जानते-देखते हैं और निश्चयनय से स्वयं के आत्मा को जानते-देखते हैं। इसप्रकार वे केवली भगवान दीपक के समान स्वपर प्रकाशक हैं; क्योंकि ज्ञान का स्वभाव स्व-पर प्रकाशक है। जिसप्रकार दीपक स्वयं को तो प्रकाशित करता ही है, घट-पटादि पदार्थों को भी प्रकाशित करता हैउसीप्रकार यह ज्योतिस्वरूप भगवान आत्मा स्वयं को जानता ही है, पर को भी जानता है। इसप्रकार यह आत्मा स्व-पर प्रकाशक है। अपनी बात को पुष्ट करने के लिए टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारि देव '६९ पाखण्डियों पर विजय प्राप्त करनेवाले, विशालकीर्ति के धनी गाथा १५९: शुद्धोपयोगाधिकार १७५ महासेन पण्डितदेव ने भी कहा है' ह्न ऐसा लिखकर टीका के बीच में ही एक छन्द प्रस्तुत करते हैं; जो इसप्रकार है ह्र (अनुष्टुभ् ) यथावद्वस्तुनिर्णीति: सम्यग्ज्ञानं प्रदीपवत् । तत्स्वार्थव्यवसायात्म कथंचित् प्रमितेः पृथक् ।।७३।' (हरिगीत ) वस्तु के सत्यार्थ निर्णयरूप सम्यग्ज्ञान है। स्व-पर अर्थों का प्रकाशक वह प्रदीप समान है। वह निर्णयात्मक ज्ञान प्रमिति से कथंचित् भिन्न है। पर आतमा से ज्ञानगुण से तो अखण्ड अभिन्न है ।।७३|| वस्तु का यथार्थ निर्णयरूप सम्यग्ज्ञान है। वह सम्यग्ज्ञान दीपक की भाँति स्व और अर्थ अर्थात् परपदार्थों के व्यवसायात्मक (निर्णयात्मक) है तथा प्रमिति से कथंचित् भिन्न है। ___ध्यान रहे उक्त छन्द में लेखक आत्मद्रव्य और ज्ञान-दर्शन गुणों के स्थान पर सम्यग्ज्ञानरूपपर्याय को स्व-पर प्रकाशक बता रहे हैं।।७३|| टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इस छन्द के उपरान्त टीका के शेष भाग को प्रस्तुत करते हैं; जिसका भाव इसप्रकार है ह्न __“सतत निर्विकार निरंजन स्वभाव में लीनता के कारण निश्चयनय के पक्ष से भी स्वपरप्रकाशकपना है ही; क्योंकि 'स्वाश्रितो निश्चयः ह्र निश्चयनय स्वाश्रित होता है' ह ऐसा आगम का वचन है। यद्यपि वह सहजज्ञान आत्मा से संज्ञा, लक्षण और प्रयोजन की अपेक्षा भिन्न संज्ञा (नाम), भिन्न लक्षण से जाना जाता है; तथापि वस्तुवृत्ति से अर्थात् अखण्ड वस्तु की अपेक्षा से भिन्न नहीं है। इसकारण से वह सहजज्ञान आत्मगत (आत्मा में स्थित) दर्शन, ज्ञान, सुख और चारित्र आदि को जानता है तथा स्वात्मा अर्थात् कारणपरमात्मा के स्वरूप को भी जानता है।" टीका के इस अंश में टीकाकार मुनिराज सहज ज्ञान अर्थात् ज्ञान १. महासेनदेव पण्डित द्वारा रचित श्लोक, ग्रंथ संख्या एवं श्लोक संख्या अनुपलब्ध है। 88
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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