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________________ १४७ नियमसार गाथा १५४ विगत छन्द में वचनमय प्रतिक्रमणादि का निषेध किया था और यहाँ कहते हैं कि निश्चय धर्मध्यान एवं शुक्लध्यानरूप निश्चय प्रतिक्रमण ही करने योग्य है। गाथा मूलतः इसप्रकार है ह्र जदिसक्कदिकाएंजे पडिकमणादिं करेज्ज झाणमयं । सत्तिविहीणो जा जइ सद्दहणं चेव कायव्वं ।।१५४ ।। (हरिगीत) यदि शक्य हो तो ध्यानमय प्रतिक्रमण करना चाहिए। यदि नहीं हो शक्ति तो श्रद्धान ही कर्तव्य है।।१५४|| यदि किया जा सके तो ध्यानमय प्रतिक्रमण ही करो; यदि तू शक्ति विहीन हो तो तबतक श्रद्धान ही कर्त्तव्य है। इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र “यहाँ ऐसा कहा है कि शुद्धनिश्चय धर्मध्यानरूप प्रतिक्रमणादि करने योग्य हैं। सहज वैराग्यरूपी महल के शिखर के ही शिखामणि, परद्रव्य से परांगमुख और स्वद्रव्य में निष्णात बुद्धिवाले, पाँच इन्द्रियों के विस्तार से रहित देहमात्र परिग्रह के धारी, परमागमरूपी मकरंद झरते हुए मुख कमल से शोभायमान हे पद्मप्रभ मुनिशार्दूल ! संहनन और शक्ति का प्रादुर्भाव हो तो मुक्तिसुन्दरी के प्रथम दर्शन की भेंटस्वरूप निश्चय प्रतिक्रमण, निश्चय प्रायश्चित्त, निश्चय प्रत्याख्यान आदि प्रमुख शुद्ध निश्चय क्रियाएँ ही कर्त्तव्य हैं। ___यदि इस हीन दग्धकालरूप अकाल में तू शक्तिहीन हो तो तुझे केवल निज परमात्मतत्त्व का श्रद्धान ही कर्त्तव्य है।" आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा व टीका का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र गाथा १५४ : निश्चय परमावश्यक अधिकार “परमपूज्य श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव कहते हैं कि हे मुनियों! यदि कर सकते हो तो ध्यानमय प्रतिक्रमण आदि करो। यह प्रतिक्रमण, सामायिक, वन्दना, स्तुति आदि समस्त अंतरंगक्रिया आत्मा के शुद्धस्वरूप के अवलम्बन से होती है। यहाँ सम्पूर्ण कथन मुनिराजों की अपेक्षा से किया गया है। सातवें गुणस्थान में निर्विकल्प ध्यान में रहना ही प्रतिक्रमण, सामायिक आदि की वास्तविक क्रिया है। और तुम्हें निर्विकल्प ध्यान के अभाव में छठे गुणस्थान में जो शुभराग होता है, वह सामायिक नहीं है, सच्ची क्रिया नहीं है - यह ध्यान में रखना । तात्पर्य यह है कि उस समय भी अप्रमत्तदशा में जाने का श्रद्धान रखना। यहाँ श्रद्धान रखना' - इसका अभिप्राय मात्र सम्यग्दर्शनरूप श्रद्धान की बात नहीं है; परन्तु छठवें गुणस्थान में ही संतुष्ट न होकर, सातवें गुणस्थान की निर्विकल्प दशा का श्रद्धान रखना है। इसप्रकार यहाँ श्रद्धा के साथ चारित्र की उग्रता की बात कही है। ___छठवें गुणस्थान में विराजमान मुनिराज को अर्थात् अपने-आपको सम्बोधन करते हुए कहते हैं कि हे मुनि! ज्ञायकस्वभाव में लीन रहना ही मोक्षमार्ग है। छठे गुणस्थान में तीन कषाय का अभाव तो है, परन्तु स्वरूप में स्थिर नहीं है; इसलिए कहते हैं कि पंचमहाव्रत के परिणाम आस्रव हैं, वे मोक्षमार्ग नहीं हैं। टीकाकार मुनिराज अध्यात्मज्ञानी थे, उन्होंने इस नियमसार की अलौकिक टीका बनाई है। वे अपना पुरुषार्थ बढ़ाने हेतु स्वयं अपने को सम्बोधित करते हैं। सर्वप्रथम मुनिराज कैसे होते हैं - यह कहते हैं। ____ मुनिराज सहज वैराग्यवंत होते हैं, उत्कृष्ट वैराग्यवंत होते हैं, जंगल में रहते हैं, देह-मन-वाणी से परान्मुख होते हैं, उनकी पर्याय द्रव्य के सन्मुख होती है, वे स्वद्रव्य में निष्णात होते हैं। कारणपरमात्मा का 74 १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १२६३ २. वही, पृष्ठ १२६३ ३. वही, पृष्ठ १२६४
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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