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________________ नियमसार अनुशीलन (रोला) निज आतम से भिन्न किसी के वश में न हो। स्वहित निरत योगी नित ही स्वाधीन रहेजो॥ दुरिततिमिरनाशक अमूर्त ही वह योगी है। यही निरुक्तिक अर्थसार्थक कहा गया है ।।२३९|| स्वहित में लीन रहता हुआ कोई योगी शुद्धजीवास्तिकाय के अतिरिक्त अन्य पदार्थों के वश नहीं होता। उसका इसप्रकार सुस्थित रहना ही निरुक्ति है, व्युत्पत्ति से किया गया अर्थ है। ऐसा होने से अर्थात् पर के वश न होकर स्व में लीन रहने से दुष्कर्मरूपी अंधकार का नाश करनेवाले उस योगी को सदा प्रकाशमान ज्योति द्वारा सहज अवस्था प्रगट होने से अमूर्तपना होता है। इस छन्द के भाव को स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र “पुण्य-पाप के वश होना ही संसार है और पुण्य-पाप से पार निज चिदानन्द आत्मस्वभाव की श्रद्धापूर्वक उसमें स्थिर होना ही अवशपना है, स्ववशपना है। जिसने स्वाश्रयपूर्वक पुण्य-पापमय दुष्कृतरूपी अंधकार समूह का नाश किया है। ऐसे योगी को सदा प्रकाशमान ज्ञानानन्दज्योति द्वारा सहजदशा प्रगट होने से अमूर्तपना अर्थात् साक्षात् सिद्ध/मुक्त परमात्मदशा प्रगट होती है।" उक्त छन्द का सार यह है कि आत्मकल्याण में पूर्णत: समर्पित योगी अपने आत्मा के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं भी समर्पित नहीं होता। तात्पर्य यह है कि वह सदा स्ववश ही रहता है, अन्य के वश नहीं होता। दुष्कर्म का नाश करनेवाला ऐसा योगी सदा प्रकाशमान ज्ञानज्योति द्वारा अमूर्तिक ही रहता है, मूर्तिक शरीर से एकत्व-ममत्व से रहित वह आत्मस्थ ही रहता है; फलस्वरूप अमूर्तिक ही है। तात्पर्य यह है कि आत्मा की आराधना करनेवाला सच्चा योगी अपने आत्मा के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं भी एकत्व-ममत्व धारण नहीं करता, किसी अन्य का कर्ता-धर्ता नहीं बनता। उसकी यही वृत्ति और प्रवृत्ति उसे स्ववश बनाती है।।२३९|| १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ११७१-११७२ नियमसार गाथा १४३ इस निश्चय परम आवश्यक अधिकार की आरंभ की दो गाथाओं में अन्य के वश से रहित स्ववश की चर्चा की; अब इस तीसरी गाथा में अन्यवश की बात करते हैं। गाथा मूलतः इसप्रकार है तू वट्टदि जो सो समणो अण्णवसो होदि असुहभावेण। तम्हा तस्स दु कम्मं आवस्सयलक्खणं ण हवे ।।१४३ ।। (हरिगीत) अशुभभाव सहित श्रमण है अन्यवश बस इसलिये। उसे आवश्यक नहीं यह कथन है जिनदेव का ।।१४३|| जो श्रमण अशुभभाव सहित वर्तता है, वह श्रमण अन्यवश है; इसलिए उसके आवश्यक कर्म नहीं है। इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न “यहाँ ऐसा कहा है कि भेदोपचार रत्नत्रय परिणतिवाले जीव को अवशपना नहीं है ह ऐसा कहा है। जो श्रमणाभास द्रव्यलिंगी अप्रशस्तरागादिरूप अशुभभावों में वर्तता है, वह निजस्वरूप से भिन्न परद्रव्यों के वशीभूत होता है। इसलिए उस जघन्य रत्नत्रय परिणतिवाले जीव को स्वात्मा के आश्रय से उत्पन्न होनेवाले निश्चय धर्मध्यानरूप परमावश्यक कर्म नहीं है। वह श्रमणाभास तो भोजन के लिए द्रव्यलिंग धारण करके स्वात्म कार्य के विमुख रहता हुआ परमतपश्चरणादि के प्रति उदासीन जिनेन्द्र भगवान के मंदिर अथवा जिनमंदिर के स्थान, मकान, धन, धान्यादि को अपना मानता है, उनमें अहंबुद्धि करता है, एकत्व-ममत्व करता है।" आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा और उसकी टीका के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र "समयसार ग्रन्थाधिराज के आस्रव अधिकार में तो ज्ञानी को भी 46
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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