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________________ ७२ नियमसार अनुशीलन इस गाथा और उसकी टीका के भाव को आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र ___ “आचार्य कुन्दकुन्ददेव तीर्थंकरों की साक्षीपूर्वक कहते हैं कि अहो! जिसप्रकार जगतगुरु तीर्थंकर भगवान ने शुद्धात्मा के दर्शन-ज्ञान-रमणता द्वारा उत्तम योगभक्ति से मुक्तिसुख पाया है; उसीप्रकार तू भी पुण्यपापरूप पराश्रय एवं दुःखमय संसार की प्रवृत्ति से छूटकर असंग-अराग स्वरूप में ठहरकर अविनाशी निर्वृत्ति सुख को प्राप्त कर, उसी रीति को जानकर तू भी ऐसी उत्तम योगभक्ति को धारण कर!' ___ यह भक्ति निजात्मा के साथ सम्बन्ध रखनेवाली है। पुण्यादि व्यवहार, राग, तीर्थक्षेत्रादि संयोग के साथ सम्बन्ध रखनेवाली नहीं है। ऐसी शुद्धरत्नत्रयरूप योग की उत्तमभक्ति करने से परमनिर्वृत्तिरूपी वधू के अतिपुष्ट परिणमन में ऐसी गाढ़ एकाग्रता प्रगट होती है कि फिर उसका कभी विरह नहीं होता। असंख्य आत्मप्रदेशों में अत्यन्त आनन्दरूपी सुधारस के समूह से सिद्ध भगवंत परितृप्त हुए हैं। उन्होंने अक्षय-अनंत निजानंद सरोवर में से शांतरस के समूहरूप मोक्षदशा अर्थात् पूर्ण पवित्र परिणति के अनुपम सुख को पाया है। निज शुद्धात्ममहिमा धारक हे भव्यजीव! तुम भी निजात्मा को परम वीतरागी सुख की दाता ह्र ऐसी अंतरंग में निर्मल एकाग्रतारूप योग की भक्ति करो। अनादिकाल से आज तक हुए अनंत तीर्थंकरों ने भी ऐसी ही भक्ति की है, वे धन्य हैं।" परमभक्ति अधिकार के उपसंहार की इस गाथा और उसकी टीका में भरतक्षेत्र की वर्तमान चौबीसी का उदाहरण देते हुए यह कहा है कि जिसप्रकार ऋषभादि से महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थंकरों ने निश्चयरत्नत्रय रूप इस परम योगभक्ति से अनन्त अतीन्द्रिय आनन्द को प्राप्त किया है; उसीप्रकार हम सब भी इस योगभक्ति को धारण कर अनन्त अतीन्द्रिय सुख प्राप्त करने का अभूतपूर्व पुरुषार्थ करें ।।१४०।। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ११४८-११४९ २. वही, पृष्ठ ११४९ गाथा १४० : परमभक्ति अधिकार उपसंहार की इस गाथा के उपरान्त टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव सात छन्द लिखते हैं; जिसमें से पहला छन्द इसप्रकार है ह्र (शार्दूलविक्रीडित ) नाभेयादिजिनेश्वरान् गुणगुरून् त्रैलोक्यपुण्योत्करान् श्रीदेवेन्द्रकिरीटकोटिविलसन्माणिक्यमालार्चितान् । पौलोमीप्रभृतिप्रसिद्धदिविजाधीशांगनासंहते: शक्रेणोद्भवभोगहासविमलान् श्रीकीर्तिनाथान् स्तुवे ।।२३१।। (वीरछन्द) शुद्धपरिणति गुणगुरुओं की अद्भुत अनुपम अति निर्मल | तीन लोक में फैल रही है जिनकी अनुपम कीर्ति धवल ।। इन्द्रमुकुटमणियों से पूजित जिनके पावन चरणाम्बुज। उन ऋषभादि परम गुरुओं को वंदन बारंबार सहज ||२३१ ।। गुणों में बड़े, तीन लोक की पुण्य राशि, देवेन्द्रों के मुकुटों की किनारी में जड़ित प्रकाशमान मणियों की पंक्ति से पूजित, शचि आदि इन्द्राणियों के साथ इन्द्र द्वारा किये जानेवाले नृत्य, गान तथा आनन्द से शोभित तथा शोभा और कीर्ति के स्वामी राजा नाभिराय के पुत्र आदिनाथ आदि चौबीस तीर्थंकरों जिनवरों की मैं स्तुति करता हूँ। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस छन्द का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न ___ “यहाँ वृषभादि महावीर पर्यंत तीर्थंकरों के स्वरूप को बताते हुए कहते हैं कि वे गुणों में महान हैं, त्रिलोकवर्ती उत्तम पुण्य परमाणु उनके शरीर में एकत्रित हो गये हैं। तीर्थंकरदेव का वर्णन करते हुए आगे कहते हैं कि जिनके चरणों में सदा इन्द्र नमन करते हैं। जो देवेन्द्रों के मुकुटों द्वारा पूजे जाते हैं। ह्र ऐसे तीर्थंकरों की देह भी परमशांत, शीतल, स्थिर आनंदरूप है। जो सर्वसमाधानरूप सुख में नित्य तृप्त है। भव्यजीव जिनके दर्शन मात्र से अपने को धन्य अनुभव करते हैं। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ११५० २. वही, पृष्ठ ११५०-११५१ 37
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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