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________________ नियमसार अनुशीलन जो आसन्नभव्य जीव ऐसी भक्ति करता है, उसके ही व्यवहार व परमार्थ दोनों भक्ति होती हैं। ५२ शुद्ध रत्नत्रय द्वारा अपने आत्मस्वभाव की परमभक्ति ही निर्वाण का साक्षात् कारण है। जबतक उस साक्षात् कारण की पूर्णता नहीं होती, तबतक सिद्धभगवान आदि की भक्ति का शुभराग आता है, उसे व्यवहार से निर्वाण का परम्परा हेतु कहा गया है। निश्चयत्नत्रय के साथ होनेवाले शुभराग को उपचार से परम्परा मोक्ष का कारण कहा है। शुभराग वास्तव में स्वयं तो आस्रवभाव है; परन्तु उसके साथ कारणपरमात्मा का श्रद्धा ज्ञान- आचरण होने से मोक्ष का व्यवहार कारण कहा जाता है। २" उक्त गाथा व उसकी टीका में व्यवहारभक्ति का स्वरूप समझाते हुए मात्र यही कहा है कि निश्चयभक्ति के निर्विकल्प स्वरूप को भलीभांति समझनेवाले ज्ञानी श्रावक या छठवें सातवें गुणस्थानवर्ती मुनिराज जब शुभोपयोग के काल में सिद्ध भगवान की भक्ति-स्तुि उनके केवलज्ञानादि गुणों के आधार पर करते हैं तो उक्त विकल्पात्मक भक्ति-स्तुति को व्यवहारभक्ति कहते हैं। सिद्ध भगवान के गुणों को भलीभांति जानकर उनके गुणानुवाद करने को व्यवहारभक्ति कहते हैं। तात्पर्य यह है कि सिद्ध भगवान का स्वरूप भलीभांति जानकर मन में उनके गुणों का चिन्तन करना, वचन से उनका गुणगान करना और काया से नमस्कारादि करना व्यवहारभक्ति है ।। १३५ ।। इसके उपरान्त टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव छह छन्द लिखते हैं; जिनमें आरंभ के तीन छन्द इसप्रकार हैं ह्र (अनुष्टुभ् ) उद्धूतकर्मसंदोहान् सिद्धान् सिद्धिवधूधवान् । संप्राप्ताष्टगुणैश्वर्यान् नित्यं वन्दे शिवालयान् ।। २२१ ।। २. वही, पृष्ठ १११३ १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १११२ 27 गाथा १३५ : परमभक्ति अधिकार ५३ ( आर्या ) व्यवहारनयस्येत्थं निर्वृत्तिभक्तिर्जिनोत्तमैः प्रोक्ता । निश्चयनिर्वृतिभक्ती रत्नत्रयभक्तिरित्युक्ता ।। २२२ ।। निःशेषदोषदूरं केवलबोधादिशुद्धगुणनिलयं । शुद्धोपयोगफलमिति सिद्धत्वं प्राहुराचार्याः ।। २२३ । ( दोहा ) सिद्धवधूधव सिद्धगण नाशक कर्मसमूह | मुक्तिनिलयवासी गुणी वंदन करूँ सदीव || २२१॥ सिद्धभक्ति व्यवहार है जिनमत के अनुसार । नियतभक्ति है रतनत्रय भविजन तारणहार ॥ २२२ ॥ सब दोषों से दूर जो शुद्धगुणों का धाम । आत्मध्यानफल सिद्धपद सूरि कहें सुखधाम ॥ २२३|| जिन्होंने सभी कर्मों के समूह को गिरा दिया है अर्थात् नाश कर दिया है, जो मुक्तिरूपी स्त्री के पति हैं, जिन्होंने अष्ट गुणरूप ऐश्वर्य को प्राप्त किया है तथा जो कल्याण के धाम हैं; उन सिद्ध भगवन्तों को मैं नित्य वंदन करता हूँ। इसप्रकार जिनवरों ने सिद्ध भगवन्तों की भक्ति को व्यवहारनय से निर्वृत्ति भक्ति या निर्वाण भक्ति कहा है और निश्चय निर्वाण भक्ति को रत्नत्रय भक्ति भी कहा है। आचार्य भगवन्तों ने सिद्धपने को समस्त दोषों से रहित, केवलज्ञानादि शुद्ध गुणों का धाम और शुद्धोपयोग का फल कहा है। इन छन्दों का भाव आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं "ज्ञानी जीव समझता है कि वास्तव में निश्चय से तो एक द्रव्य दूसरे द्रव्य को छूता भी नहीं है। अतः निश्चय से तो कर्मों को आत्मा खदेड़ ही नहीं सकता, भस्म कर ही नहीं सकता; परन्तु यहाँ व्यवहारनय की प्रधानता से कथन होने के कारण ऐसा कहा है कि सिद्धों ने कर्मों को खदेड़ दिया है, भस्म कर दिया है, खिरा दिया है।
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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