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________________ नियमसार अनुशीलन इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग, वेदना और निदान के निमित्त से जो खेदरूप परिणाम होते हैं, वे आर्त्तध्यान हैं और निर्दयता / क्रूरता में होने वाले आनन्दरूप परिणाम रौद्रध्यान हैं। आर्त्तध्यान को शास्त्रों में तिर्यंच गति का कारण बताया गया है और रौद्रध्यान को नरकगति का कारण कहा गया है।' यहाँ इनके फल में प्रेतयोनि को भी जोड़ दिया है। ३० जिनके ये आर्त्त और रौद्रध्यान नहीं होंगे, उनके धर्मध्यान और शुक्लध्यान होंगे। धर्म और शुक्लध्यान को मोक्ष का कारण कहा गया है। इससे यह सहज ही सिद्ध है कि जिनके आर्त्त और रौद्रध्यान नहीं होंगे; उनके मोक्षप्राप्ति की हेतुभूत सामायिक सदा होगी ही ।। १२९ ।। इसके बाद टीकाकार मुनिराज एक छन्द लिखते हैं; जो इसप्रकार है ( आर्या ) इति जिनशासनसिद्धं सामायिकव्रतमणुव्रतं भवति । यस्त्यजति मुनिर्नित्यं ध्यानद्वयमार्तरौद्राख्यम् । । २१४ । । ( सोरठा ) जो मुनि छोड़े नित्य आर्त्त रौद्र ये ध्यान दो । सामायिकव्रत नित्य उनको जिनशासन कथित ॥ २१४॥ इसप्रकार जो मुनिराज आर्त्त और रौद्र नाम के दो ध्यानों को छोड़ते हैं; उन्हें जिनशासन में कहे गये अणुव्रतरूप सामायिक व्रत होता है। यहाँ एक प्रश्न संभव है कि मुनिराजों की सामायिक ( आत्मध्यान) को यहाँ अणुव्रत क्यों कहा जा रहा है ? उक्त संदर्भ में आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी का स्पष्टीकरण इसप्रकार है “वीतरागी मुनिराज स्व-विषय के ग्रहणपूर्वक पर- विषय को छोड़ते हैं । स्व-विषय में लीन होने पर उनके आर्त-रौद्र ध्यान के परिणाम उत्पन्न ही नहीं होते ह्र ऐसे वीतरागी मुनिराजों को अणुव्रतरूप सामायिक सदा होता है। १. आचार्य पूज्यपाद : सर्वार्थसिद्धि, अध्याय ६, सूत्र १५ व १६ की टीका २. वही, अध्याय ९, सूत्र २९ 16 गाथा १२९ : परमसमाधि अधिकार ३१ यहाँ अणुव्रत का अर्थ श्रावक के व्रत नहीं है, बल्कि पूर्ण यथाख्यातचारित्र न होने के कारण ही यहाँ मुनिराज के सामायिकव्रत को अणुव्रत कहा गया है । तात्पर्य यह है कि यहाँ आत्मा में पूर्ण लीनता न होने के कारण अपूर्ण ह्न अणुव्रत कहा गया है। ग्यारहवें - बारहवें गुणस्थान में सामायिकचारित्र नहीं होता, वहाँ तो यथाख्यातचारित्र होता है। यहाँ यथाख्यात परिपूर्ण चारित्र का अभाव है ह्न इस अपेक्षा मुनि के सामायिक को भी अणुव्रत कहा है ह्र ऐसा समझना । ह्र यह अणुव्रत भी वीतरागी हैं, यह शुभरागात्मक व्रतों की बात नहीं है । तत्त्वार्थसूत्र में जिन व्रतों का वर्णन शुभास्रव के रूप में किया है, यहाँ उनकी बात नहीं है। वह तो शुभराग है और यह तो मोक्ष के कारणरूप निर्विकल्प वीतरागी निश्चयव्रत की बात है। " श्रावकों के बारह व्रतों में एक सामायिक नामक शिक्षाव्रत है और श्रावकों की ग्यारह प्रतिमाओं में तीसरी प्रतिमा का नाम भी सामायिक है। उनकी चर्चा यहाँ नहीं हैं। एक बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक के जो ग्यारह प्रतिमायें होती हैं; उनमें दूसरी प्रतिमा में बारह व्रत होते हैं। पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत ह्न इसप्रकार कुल बारह व्रत होते हैं। सामायिक नाम का व्रत अणुव्रतों में नहीं है, शिक्षा व्रतों में है। इसलिए यहाँ प्रयुक्त अणुव्रत का संबंध श्रावक के अणुव्रतों से होना संभव ही नहीं है । जैसा कि आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी ने कहा कि यहाँ उल्लिखित सामायिक व्रत को अणुव्रत यथाख्यातचारित्र की अपेक्षा कहा है। अत: स्वामीजी का यह कथन आगमसम्मत और युक्तिसंगत ही है ।। २१४ ।। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १०६५-१०६६
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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