SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 148
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २९४ नियमसार अनुशीलन दूसरा छन्द इसप्रकार है ह्न (अनुष्टभ्) पद्मप्रभाभिधानोद्घसिन्धुनाथसमुद्भवा । उपन्यासोर्भिमालेयंस्थेयाच्चेतसि सा सताम् ।।३०९।। ( हरिगीत ) पद्मप्रभमलधारि नामक विरागी मुनिदेव ने। अति भावना से भावमय टीका रची मनमोहनी ।। पद्मसागरोत्पन्न यह है उर्मियों की माल जो। कण्ठाभरण यह नित रहे सज्जनजनों के चित्त में ||३०९|| पद्मप्रभ नाम के उत्तम समुद्र से उत्पन्न होनेवाली यह उर्मिमालालहरों की माला-कथनी सत्पुरुषों के चित्त में स्थित रहो। टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव कहते हैं कि जिसप्रकार समुद्र में लहरें उठती हैं, उछलती हैं: उसीप्रकार यह शास्त्र नियमसार पढकर मेरे मनरूपी समुद्र में उसकी टीका लिखने के भाव उछलते हैं; अत: मैंने यह टीका लिखी है। मेरी एकमात्र भावना यह है कि इससे लाभ लेनेवाले आत्मार्थी सत्पुरुषों के हृदय में यह सदा स्थित रहे||३०९|| तीसरा छन्द इसप्रकार है ह्र (अनुष्टुभ् ) अस्मिन् लक्षणशास्त्रस्य विरुद्धंपदमस्तिचेत् । लुप्त्वा तत्कवयो भद्रा: कुर्वन्तु पदमुत्तमम् ।।३१०।। (दोहा) यदि इसमें कोइ पद लगे लक्षण शास्त्र विरुद्ध । भद्रकवि रखना वहाँ उत्तम पद अविरुद्ध ||३१०|| यदि इस टीका में कोई पद लक्षणशास्त्र के विरुद्ध हो तो भद्र कविगण उसका लोप करके उसके स्थान पर उत्तमपद रख देवें ह्र ऐसा मेरा अनुरोध है। ध्यान रहे यहाँ टीकाकार मुनिराज भाव की भूल स्वीकार नहीं कर रहे हैं। क्योंकि उन्हें पक्का भरोसा है कि उनकी लेखनी से भाव संबंधी गाथा १८७ : शुद्धोपयोगाधिकार २९५ भूल तो हो ही नहीं सकती। उनका तो मात्र इतना ही कहना है कि किसी छन्द में छन्द शास्त्र के विरुद्ध कुछ लिखा गया हो तो सज्जन पुरुष उसे सुधार लेवें॥३१०॥ चौथा छन्द इसप्रकार है तू (वसंततिलका) यावत्सदागतिपथे रुचिरे विरेजे तारागणैः परिवृतं सकलेन्दुबिंबम् । तात्पर्यवृत्तिरपहस्तितहेयवृत्ति: स्थयात्सतां विपुलचेतसि तावदेव ।।३११।। (हरिगीत ) तारागण से मण्डित शोभे नील गगन में। अरे पूर्णिमा चन्द्र चाँदनी जबतक नभ में || हेयवृत्ति नाशक यह टीका तबतक शोभे । नित निज में रत सत्पुरुषों के हृदय कमल में ||३१|| जबतक तारागणों से घिरा हुआ पूर्णचन्द्रबिम्ब सुन्दर आकाश में शोभायमान रहे; तबतक यह हेयवृत्तियों को निरस्त करनेवाली तात्पर्यवृत्ति नाम की टीका सत्पुरुषों के विशाल हृदय में स्थित रहे। यह मंगल आशीर्वादात्मक अंतमंगल है; जिसमें यावद् चन्द्रदिवाकरो की शैली में यह कहा गया है कि जबतक आकाश में चन्द्रमा रहे तबतक अर्थात् अनंतकाल तक यह टीका सज्जनों के हृदय कमल में विराजमान रहे||३१|| अधिकार के अन्त में टीकाकार मुनिराज स्वयं लिखते हैं कि इसप्रकार सुकविजनरूपी कमलों के लिए जो सूर्य समान हैं और पाँच इन्द्रियों के विस्तार रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था, ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसार (आचार्य कुन्दकुन्द प्रणीत) की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में शुद्धोपयोगाधिकार नामक बारहवाँ श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ। . 148 मेरा यह त्रिकाली ध्रुव परमात्मा देहदेवल में विराजमान होने पर भी अदेही है, देह से भिन्न है। ह्र गागर में सागर, पृष्ठ-२०
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy