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________________ २८६ नियमसार अनुशीलन से दुःखी हैं। निर्धन दीनता से दुःखी हैं और धनवान अभिमान दुःखी हैं । जहाँ पूरी दुनिया आकुलता से दुःखी है; वहाँ आत्मा का भान करके उसमें लीन रहनेवाले संत सदा सुखी हैं। इन्द्र का इन्द्रासन छूट गया। चक्रवर्ती का राज चला गया। भरतक्षेत्र में तीर्थंकरों का समवशरण था, वह समवशरण बिखर गया । तीर्थंकर की देह के परमाणु बिखर गये। इस भरतक्षेत्र में समवशरण में महावीर परमात्मा विराजे थे। तब धर्म का उद्घोष होता था । साक्षात् गणधरदेव विराजमान थे । इन्द्र आकर भगवान के चरण की पूजा करते थे। ऐसा समवशरण भी आज इस क्षेत्र में नहीं दिखाई देता है। इसप्रकार काल सभी को कवल (कौर) की तरह ग्रस लेता है। ऐसे इस संसारवन में एक जैनदर्शन ही शरण है अर्थात् आत्मा का स्वभाव ही शरण है। जिसप्रकार भूल-भूलैया में अज्ञानी को मार्ग नहीं मिलता है; उसीप्रकार इस घोर संसार में अनेक कुनयरूपी मार्ग हैं। उनमें मोक्ष का मार्ग खोजना अज्ञानी जीवों को अत्यन्त दुर्गम है। अतः मुनिराज कहते हैं कि अरे जीव! यदि तुझे विकट संसार में से पार उतरना हो तो एक जैनदर्शन की शरण गहो, जैनदर्शन को समझाने वाले संतों की शरण गहो। सत्समागम में अपनी योग्यता से आत्मस्वभाव को समझकर उसकी शरण लेना ही संसारसागर से पार उतरने का उपाय है।" जिसप्रकार गाथा और उसकी टीका में अत्यन्त करुणाभाव से भव्य जीवों को संबोधित किया गया है; उसीप्रकार इस छन्द में भी अत्यन्त करुणापूर्वक समझाया जा रहा है कि इस दुःखों के घर संसार में एकमात्र जैनदर्शन शरणभूत है; क्योंकि सच्चा वीतरागी मार्ग जैनदर्शन में ही है, अन्यत्र कहीं भी नहीं है ।। ३०६ ।। दूसरा छन्द इसप्रकार है ह्र १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १५४७ ३. वही, पृष्ठ १५४८ २. वही, पृष्ठ १५४८ ४. वही, पृष्ठ १५५० 144 गाथा १८६ : शुद्धोपयोगाधिकार २८७ ( शार्दूलविक्रीडित ) लोकालोकनिकेतनं वपुरदो ज्ञानं च यस्य प्रभोस्तं शंखध्वनिकंपिताखिलभुवं श्रीनेमितीर्थेश्वरम् । स्तोतुं के भुवनत्रयेऽपि मनुजा: शक्ता: सुरा वा पुनः जाने तत्तवनैककारणमहं भक्तिर्जिनेऽत्युत्सुका ।। ३०७।। ( हरिगीत ) सम्पूर्ण पृथ्वी को कंपाया शंखध्वनि से आपने । सम्पूर्ण लोकालोक है प्रभु निकेतन तन आपका ॥ हे योगि! किस नर देव में क्षमता करे जो स्तवन । अती उत्सुक भक्ति से मैं कर रहा हूँ स्तवन ॥३०७॥ जिन प्रभु का ज्ञानरूपी शरीर लोकालोक का निकेतन है; जिन्होंने शंख की ध्वनि से सारी पृथ्वी को कंपा दिया था; उन नेमिनाथ तीर्थेश्वर का स्तवन करने में तीन लोक में कौन मनुष्य या देव समर्थ है ? फिर भी उनका स्तवन करने का एकमात्र कारण उनके प्रति अति भक्ति उत्सुक ही है ह्र ऐसा मैं जानता हूँ। आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस छन्द के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं "मुनिराज कहते हैं कि हे नाथ! हमें आत्मा का भान हुआ है और आपकी सम्यक् पहचान हुई है; अतः आपके प्रति भक्ति का प्रमोद और उत्साह आये बिना नहीं रहता है। भगवान के ज्ञानशरीर में लोकालोक बसते हैं अर्थात् भगवान सदा लोकालोक के ज्ञायक हैं। जिन्होंने गृहस्थदशा में शंख की ध्वनि से सम्पूर्ण पृथ्वी को गुंजाया था और बाद में जो सर्वज्ञ हुए, ऐसे श्री नेमिनाथ भगवान के स्तवन में इस जगत में कौन मनुष्य या देव समर्थ है।' भगवान नेमिनाथ प्रभु श्रीकृष्ण के भाई थे। एकबार नेमिनाथ भगवान ने श्रीकृष्ण की रानी सत्यभामा से वस्त्र धोने के लिए कहा। तब रानी ने १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १५५०
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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