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________________ ૨૮૨ नियमसार अनुशीलन मुक्ति का कारण होने से यह रत्नत्रयरूप धर्म और नियमसार नामक शास्त्र तथा उसका मुक्तिरूप फल सभी उत्तम पुरुषों के हृदय कमल में जयवंत रहे । सूत्रकार अर्थात् गाथायें लिखनेवाले आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने परमागम की भक्ति से यह शास्त्र लिखा है। उनका इसमें कोई अन्य प्रयोजन नहीं है, स्वार्थ नहीं है। यह शास्त्र सभी भव्यजीवों के लिए मुक्ति का मार्ग दिखानेवाला है। अत: सभी भव्यजीवों को इसका सच्चे दिल से पठन-पाठन करना चाहिए।।३०५।। __ वस्तु तो पर से निरपेक्ष ही है। उसे अपने गुण-धर्मों को धारण करने में किसी पर की अपेक्षा रंचमात्र भी नहीं है। उसमें नित्यताअनित्यता, एकता-अनेकता आदि सब धर्म एक साथ विद्यमान रहते हैं। द्रव्यदृष्टि से वस्तु जिस समय नित्य है, पर्याय दृष्टि से उसी समय अनित्य भी है, वाणी से जब नित्यता का कथन किया जायेगा, तब अनित्यता का कथन सम्भव नहीं है। ___ अतः जब हम वस्तु की नित्यता का प्रतिपादन करेंगे, तब श्रोता यह समझ सकता है कि वस्तु नित्य ही है, अनित्य नहीं। अत: हम किसी अपेक्षा नित्य भी हैं, ऐसा कहते हैं। ऐसा कहने से उसके ज्ञान में यह बात सहज आ जावेगी कि किसी अपेक्षा अनित्य भी है। भले ही वाणी के असामर्थ्य के कारण वह बात कही नहीं जा रही है। अत: वाणी में स्याद्-पद का प्रयोग आवश्यक है, स्याद्-पद अविवक्षित धर्मों को गौण करता है, पर अभाव नहीं। उसके प्रयोग बिना अभाव का भ्रम उत्पन्न हो सकता है। ह्र तीर्थंकर महावीर और उनका सर्वोदय तीर्थ, पृष्ठ-१४४ नियमसार गाथा १८६ उपसंहार की विगत गाथा के उपरान्त लिखी जानेवाली इस गाथा में यह अनुरोध किया जा रहा है कि निन्दकों की बात पर ध्यान देकर इसके अध्ययन से विरक्त मत हो जाना। गाथा मूलत: इसप्रकार है ह्र ईसाभावेण पुणो केई जिंदंति सुन्दरं मग्गं । तेसिं वयणं सोच्चाऽभत्तिं मा कुणह जिणमग्गे ॥१८६।। (हरिगीत) यदि कोई ईर्ष्याभाव से निन्दा करे जिनमार्ग की। छोड़ो न भक्ति वचन सुन इस वीतरागी मार्ग की॥१८६।। यदि कोई ईर्ष्याभाव से इस सुन्दरमार्ग की निन्दा करता है तो उसके वचन सुनकर जिनमार्ग के प्रति अभक्ति नहीं करना। इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र “यहाँ भव्यजीवों को शिक्षा दी है। यदि कोई मंदबुद्धि त्रिकाल निरावरण, नित्यानन्द लक्षणवाले, निर्विकल्प, निजकारणपरमात्मतत्त्व के सम्यक् ज्ञान-श्रद्धान-अनुष्ठानरूप शुद्धरत्नत्रय से प्रतिपक्षी मिथ्यात्व कर्मोदय की सामर्थ्य से मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र परायण वर्तते हुए ईर्ष्याभाव से/मत्सरयुक्त परिणाम से पापक्रिया से निवृत्ति जिसका लक्षण है ह्र ऐसे भेदोपचार रत्नत्रयात्मक तथा अभेदोपचार रत्नत्रयात्मक सर्वज्ञवीतरागदेव के इस सुन्दर मार्ग की निन्दा करते हैं तो उन स्वरूप विकल लोगों के कुत्सित हेतु और खोटे उदाहरणों से युक्त कुतर्क वचनों को सुनकर जिनेश्वर प्रणीत शुद्धरत्नत्रय मार्ग के प्रति हे भव्यजीवो! अभक्ति नहीं करना, परन्तु भक्ति करना ही कर्त्तव्य है।" __ आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा और उसकी टीका के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र 142
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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