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________________ नियमसार गाथा १८४ विगत गाथा में कहा था कि सिद्धत्व और निर्वाण एक ही है और इस गाथा में यह कहा जा रहा है कि जहाँ तक धर्मद्रव्य है, जीव और पुद्गलों का गमन वहीं तक है। गाथा मूलतः इसप्रकार है ह्र वाण पुग्गागमणं जाणेहि जाव धम्मत्थी । धम्मत्थिकायभावे तत्तो परदो ण गच्छंति । । १८४ । । ( हरिगीत ) जीव अर पुद्गलों का बस वहाँ तक ही गमन है । जहाँ तक धर्मास्ति है आगे न उनका गमन है || १८४|| जहाँ तक धर्मास्तिकाय है; वहाँ तक जीव और पुद्गलों का गमन होता है ऐसा जानो । धर्मास्तिकाय के अभाव में उसके आगे वे जीव और पुद्गल नहीं जाते । इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र “यहाँ इस गाथा में सिद्धक्षेत्र के ऊपर जीव और पुद्गलों के गमन का निषेध किया गया है। जीवों की स्वभावक्रिया सिद्धिगमन है अर्थात् सिद्धक्षेत्र तक जाने की है और विभावक्रिया अगले भव जाते समय छह दिशाओं में गमन है। पुद्गलों की स्वभावक्रिया परमाणु की गति है, गतिप्रमाण है और विभावक्रिया दो अणुओं से अनंत परमाणुओं तक के स्कंधों की गति प्रमाण है। इसलिए इन जीव और पुद्गलों की गतिक्रिया त्रिलोक के शिखर के ऊपर नहीं है; क्योंकि आगे गति के निमित्तभूत धर्मास्तिकाय का अभाव है। जिसप्रकार जल के अभाव में मछलियों की गतिक्रिया नहीं होती; उसीप्रकार जहाँ तक धर्मास्तिकाय है, उस क्षेत्र तक ही स्वभावगतिक्रिया और विभावगतिक्रियारूप से परिणत जीव- पुद्गलों की गति होती है।" 140 गाथा १८४ : शुद्धोपयोगाधिकार २७९ इस गाथा और उसकी टीका में मात्र यही कहा गया है कि जीव और पुद्गलों का गमन वहीं तक होता है, जहाँ तक धर्मद्रव्य का अस्तित्व है। उसके आगे इनका गमन नहीं होता ।। १८४ ।। इसके बाद टीकाकार मुनिराज एक छंद लिखते हैं; जो इसप्रकार हैह्न (अनुष्टुभ् ) त्रिलोकशिखरादूर्ध्वं जीवपुद्गलयोर्द्वयोः । नैवास्ति गमनं नित्यं गतिहेतोरभावतः ||३०४ ।। (रोला ) तीन लोक के शिखर सिद्ध स्थल के ऊपर | भगति हेतु के कारण का अभाव होने से | अरे कभी भी पुद्गल जीव नहीं जाते हैं। आगम में यह तथ्य उजागर किया गया है || ३०४ || गति हेतु के अभाव के कारण जीव और पुद्गलों का गमन त्रिलोक के शिखर के ऊपर कभी भी नहीं होता । जो बात गाथा में कही गई है, वही बात इस छन्द में दुहरा दी गई है ।। ३०४ || • आत्मानुभूति प्राप्ति के लिए सन्नद्ध पुरुष प्रथम तो श्रुतज्ञान के अवलम्बन से आत्मा का विकल्पात्मक सम्यक् निर्णय करता है । तत्पश्चात् आत्मा की प्रकट प्रसिद्धि के लिए, पर - प्रसिद्धि की कारणभूत इन्द्रियों से मतिज्ञानतत्त्व को समेट कर आत्माभिमुख करता है तथा अनेक प्रकार के पक्षों का अवलम्बन करनेवाले विकल्पों से | आकुलता उत्पन्न करनेवाली श्रुतज्ञान की बुद्धि को भी गौण कर उसे भी आत्माभिमुख करता हुआ विकल्पानुभवों को पार कर स्वानुभव दशा को प्राप्त हो जाता है। ह्न मैं कौन हूँ, पृष्ठ- १५
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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