SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 137
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७३ २७२ नियमसार अनुशीलन ही होता है, सिद्धों के वह शरीर नहीं है; अतः उनके शुक्लध्यान भी नहीं है। भाई! वास्तव में तो त्रिकाली तत्त्व में ही आनन्द है, सिद्धों की पर्याय में भी आनन्द है; परन्तु परद्रव्य में आनन्द नहीं है।" उक्त गाथा और उसकी टीका में यही कहा गया है कि उक्त परमतत्त्व में; सदा निरंजन होने से ज्ञानावरणादि आठ कर्म नहीं हैं, त्रिकाल निरुपाधि स्वभाववाला होने से औदारिकरूप पाँच शरीररूप नोकर्म नहीं है, औदयिक आदि विभावभावों का अभाव होने से चार प्रकार के आर्त और चार के प्रकार के रौद्रध्यान नहीं हैं, चरम शरीर का अभाव होने से चरम शरीरी के होने वाले चार धर्मध्यान और चार शुक्लध्यान नहीं हैं तथा मन नहीं होने से चिन्ता भी नहीं है। इसप्रकार महानन्दस्वरूप उक्त परमतत्त्व के न तो कर्म हैं, न नोकर्म हैं, न चिन्ता है, न आर्त-रौद्रध्यान है तथा धर्म और शुक्लध्यान भी नहीं है। इसप्रकार हम देखते हैं कि आश्रय करने योग्य वह परमतत्त्व ही है।।१८१।। इसके बाद टीकाकार एक छन्द लिखते हैं; जो इसप्रकार है ह्र (मंदाक्रांता) निर्वाणस्थे प्रहतदुरितध्वान्तसंघे विशुद्धे कर्माशेषं न च नच पुनानकं तच्चतुष्कम् । तस्मिन्सिद्धे भगवति परब्रह्मणि ज्ञानपुंजे काचिन्मुक्तिर्भवति वचसां मानसानां च दूरम् ।।३०१।। (रोला) जिसने घाता पापतिमिर उस शुद्धातम में। कर्म नहीं हैं और ध्यान भी चार नहीं हैं। निर्वाण स्थित शुद्ध तत्त्व में मुक्ति है वह। मन-वाणी से पार सदा शोभित होती है|३०|| जिसने पापरूपी अंधकार के समूह का नाश किया है, जो विशुद्ध है; उस निर्वाण में स्थित परम ब्रह्म में सम्पूर्ण कर्म नहीं है और चार १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १५१६ गाथा १८१ : शुद्धोपयोगाधिकार प्रकार के ध्यान भी नहीं हैं। उन सिद्धरूप ज्ञानपुंज भगवान परम ब्रह्म में कोई ऐसी मुक्ति है, जो वचन और मन से दूर है। इस छन्द का भाव आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र ___ "इस शुद्धभाव अधिकार में सिद्धों का स्वरूप कैसा होता है और वह दशा किस उपाय से प्राप्त होती है? - यह बताते हैं। मात्र परमानन्द के अनुभववाला आत्मा सिद्ध कहलाता है। वे जिस उपाय से सिद्ध हुए, उस उपाय को जानकर उसकी श्रद्धा करें तो सिद्ध की प्रतीति की - ऐसा कहा जाये; परन्तु यह जीव अनादि से जो करता आ रहा है, उस उपाय से सिद्धदशा नहीं होती है; परन्तु मेरा स्वभाव सिद्ध जैसा है - ऐसा निर्णय कर उसमें लीन हो जाये तो उसके द्वारा सिद्ध हो जाता है।" जो बात गाथा और उसकी टीका में कही गई है, वही बात इस छन्द में भी कही गई है। कहा गया है कि पापरूपी अंधकार का नाश करनेवाले, निर्वाणदशा को प्राप्त, विशुद्ध परमब्रह्म में ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म और मोह-राग-द्वेषरूप भावकर्म नहीं है; चार प्रकार के ध्यान भी नहीं हैं। उन सिद्धदशा को प्राप्त, ज्ञान के पुंज परमब्रह्म में मन-वचन से दूर कोई ऐसी मुक्ति प्रगट हुई है; जिसकी कामना सभी आत्मार्थी मुमुक्षु भाई-बहिन करते हैं ।।३०१।। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १५१७ जो अपना नही है, उससे हम कितना ही राग क्यों न करें, राग करने मात्र से वह अपना नहीं हो जाता। जो अपना है, उससे हम कितना ही द्वेष क्यों न करें, द्वेष करने मात्र से वह पराया नहीं हो जाता। जो अपना है सो अपना है, जो पराया है सो पराया है। इसीप्रकार जो अपना है, उसे पराया मानने मात्र से वह पराया नहीं हो जाता और जो पराया है, उसे अपना मानने मात्र से वह अपना नहीं हो जाता; क्योंकि जो अपना है, वह त्रिकाल अपना है; जो पराया है, वह त्रिकाल पराया है। ह्नगागर में सार, पृष्ठ-२४-२५ 137
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy