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________________ नियमसार अनुशीलन हूँ, उनका स्तवन करता हूँ और भलीभाँति भावना २६४ नित्य नमन करता भाता हूँ । इस छन्द में सांसारिक सुख-दुःख से रहित, जन्म-मरण की पीड़ा से रहित, सर्वप्रकार बाधा से रहित, कारणपरमात्मा एवं कार्यपरमात्मा की कामसुख से विमुख होकर वन्दना की गई है, उनका स्तवन करने की भावना भाई गई है ।। २९८ ॥ दूसरा छन्द इसप्रकार है ह्र ( अनुष्टुभ् ) आत्माराधनया हीन: सापराध इति स्मृतः । अहमात्मानमानन्दमंदिरं नौमि नित्यशः ।। २९९ ।। (दोहा) आत्मसाधना से रहित है अपराधी जीव । नमूँ परम आनन्दघर आतमराम सदीव ।। २९९ ।। आत्मा की आराधना से रहित आत्मा को अपराधी माना गया है; इसलिए मैं आनन्द के मन्दिर आत्मा को नित्य नमन करता हूँ । इस छन्द में भी आत्मा की आराधना से रहित जीवों को अपराधी बताते हुए ज्ञानानन्दमयी भगवान आत्मा और अरहंत-सिद्धरूप कार्यपरमात्मा को नमस्कार किया गया है ।। २९९॥ · आत्मा की चर्चा में थकावट लगना, ऊब पैदा होना आत्मा की अरुचि का द्योतक है । ‘रुचि अनुयायी वीर्य' के अनुसार जहाँ हमारी रुचि है, हमारी सम्पूर्ण शक्तियाँ उसी दिशा में काम करती हैं। यदि हमें भगवान आत्मा की रुचि होगी तो हमारी सम्पूर्ण शक्तियाँ भगवान आत्मा की ओर ही सक्रिय होंगी और यदि हमारी रुचि | विषय - कषाय में हुई तो हमारी सम्पूर्ण शक्तियाँ विषय - कषाय की ओर ही सक्रिय होंगी। ह्र गागर में सागर, पृष्ठ-४९ 133 नियमसार गाथा १८० विगत गाथा में जिस परमतत्त्व को निर्वाण बताया गया है। इस गाथा में भी उस निर्वाण के योग्य परमतत्त्व का स्वरूप समझाया जा रहा है। गाथा मूलतः इसप्रकार है ह्र वि इंदिय उवसग्गाणवि मोहो विम्हिओण णिद्दा य । `ण य तिण्हा णेव छुहा तत्थेव य होइ णिव्वाणं । । १८० ।। ( हरिगीत ) इन्द्रियाँ उपसर्ग एवं मोह विस्मय भी नहीं । निद्रा तृषा अर क्षुधा बाधा है नहीं निर्वाण में ।। १८० ।। जहाँ इन्द्रियाँ नहीं हैं, उपसर्ग नहीं हैं, मोह नहीं है, विस्मय नहीं है, निद्रा नहीं है, तृषा नहीं है, क्षुधा नहीं है; वही निर्वाण है । इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र "यह परम निर्वाण के योग्य परमतत्त्व के स्वरूप का कथन है। उक्त परमतत्त्व अखण्ड, एकप्रदेशी, ज्ञानस्वरूप होने से उसे स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण नामक पाँच इन्द्रियों का व्यापार नहीं है; देव, मानव, तिर्यंच और अचेतन कृत उपसर्ग नहीं है; क्षायिक ज्ञान और यथाख्यात चारित्रमय होने के कारण दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय के भेद से दो प्रकार का मोहनीय नहीं है; बाह्यप्रपंच से विमुख होने के कारण विस्मय नहीं है, नित्य प्रगटरूप शुद्धज्ञानस्वरूप होने से उसे निद्रा नहीं है; असाता वेदनीय कर्म को निर्मूल कर देने से उसे क्षुधा और तृषा नहीं है; उस परमात्मतत्त्व में सदा ब्रह्म (निर्वाण ) है । " स्वामीजी उक्त गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र “परमतत्त्व में इन्द्रियाँ और उपसर्ग नहीं हैं। सिद्धदशा में प्रतिकूलता का संयोग ही नहीं है। त्रिकाली चैतन्यतत्त्व में और मुक्तदशा में प्रतिकूलता का स्पर्श नहीं है। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १५००
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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