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________________ नियमसार अनुशीलन आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस छन्द के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह “भाव पाँच हैं। उनमें एकद्रव्यरूपभाव है और चार पर्यायरूपभाव हैं। एक त्रिकाली स्वभावभाव है और चार भाव समय से संबंधित हैं अर्थात् सभी का एक निश्चित समय है। पंचम पारिणामिकभाव निरन्तर स्थायी है । यह भाव सम्यग्दर्शन, मोक्षमार्ग और सिद्धदशा का कारण है । २६० यहाँ मुनियों के उग्र पुरुषार्थ होने की वजह से उन्हें अग्नि समान कहा है। सम्यग्दृष्टि के उग्र पुरुषार्थ नहीं होता; अतः वह अग्नि समान नहीं है। मुनिराज तो आत्मस्वरूप में विशेष लीन होते हैं; अतः उनके पुण्य-पाप की वृत्ति उत्पन्न ही नहीं होती। पंचमहाव्रत तथा अट्ठाईस मूलगुण पालने के विकल्प, अचेलपना, एकबार भोजन आदि के विकल्प भी परमार्थ से पाप के समान 'छोड़ने योग्य' ही हैं; उन विकल्पों को जलाने के लिए मुनि समर्थ हैं। " इस छन्द में यह कहा गया है कि औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक ह्न इन पाँच भावों में परमपरिणामिकभाव नामक सदा स्थायी रहनेवाला सम्यग्दृष्टियों के गोचर पंचमभाव भव का अभाव करनेवाला है। एकमात्र वे मुनिवर ही इस कलियुग में पापरूपी भयंकर जंगल को जलाने में, भस्म कर देने में अग्नि के समान हैं; जो समस्त राग-द्वेष छोड़कर, उस परम पंचमभाव को जानकर उस परमपारिणामिकभाव का उग्र आश्रय करते हैं; क्योंकि उक्त परमपरिणामिकभावरूप पंचमभाव के आश्रय से सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र की प्राप्ति होती है, मुक्ति की प्राप्ति होती है ।। २९७ ।। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १४८५ २. वही, पृष्ठ १४८६ · वस्तुतः कार्य तो उपादान की पर्यायगत योग्यता के अनुसार ही सम्पन्न होता है; निमित्त की तो मात्र अनुकूलता के रूप से उपस्थिति ही रहती है। ह्न निमित्तोपादान, पृष्ठ- २८ 131 नियमसार गाथा १७९ विगत गाथा में जिस परमतत्त्व का स्वरूप समझाया है; अब इस गाथा में यह कहते हैं कि निर्वाण का कारण होने से वह परमतत्त्व ही निर्वाण है । गाथा मूलतः इसप्रकार है ह्र णवि दुक्खं णवि सुक्खं णवि पीडा णेव विज्जदे बाहा । णवि मरणं णवि जणणं तत्थेव य होइ णिव्वाणं । । १७९ ।। ( हरिगीत ) जनम है न मरण है सुख-दुख नहीं पीड़ा नहीं । बाधा नहीं वह दशा ही निर्बाध है निर्वाण है ।। १७९ ।। जहाँ अर्थात् जिस आत्मा में दुख नहीं है, सुख नहीं है, पीड़ा नहीं है, बाधा नहीं है, मरण नहीं है, जन्म नहीं है; वहाँ ही अर्थात् उस आत्मा में ही, वह आत्मा ही निर्वाण है । इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र "सांसारिक विकार समूह के अभाव के कारण उक्त परमतत्त्व वस्तुतः निर्वाण है ह्न यहाँ ऐसा कहा गया है। निरन्तर अन्तर्मुखाकार परम अध्यात्मस्वरूप में निरत उस निरुपराग रत्नत्रयात्मक परमात्मा के अशुभ परिणति के अभाव के कारण अशुभ कर्म नहीं है और अशुभ कर्म के अभाव के कारण दुख नहीं है; शुभ परिणति के अभाव के कारण शुभकर्म नहीं है और शुभकर्म के अभाव के कारण वस्तुतः सांसारिक सुख नहीं है; पीड़ा योग्य यातना शरीर के अभाव के कारण पीड़ा नहीं है; असाता वेदनीय कर्म के अभाव के कारण बाधा नहीं है; पाँच प्रकार शरीररूप नोकर्म के अभाव के कारण मरण नहीं है और पाँच प्रकार के नोकर्म के हेतुभूत कर्म पुद्गल के स्वीकार के अभाव के कारण जन्म नहीं है। ह्र ऐसे लक्षणों से लक्षित, अखण्ड, विक्षेपरहित परमतत्त्व को सदा निर्वाण है।"
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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