SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 127
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५२ नियमसार अनुशीलन (दोहा) पंचपरावर्तन रहित पंच भवों से पार| पंचसिद्ध बंदौ सदा पंचमोक्षदातार||२९५|| पाँच प्रकार के संसार से मुक्त होने के लिए, पाँच प्रकार के संसार से मुक्त, पाँच प्रकार के मोक्षरूपी फल को देनेवाले, पाँच प्रकार के सिद्धों की मैं वंदना करता हूँ। उक्त छन्द का आशय यह है कि सिद्ध भगवान द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावरूप पंचपरावर्तनरूप संसार से मुक्त हैं, उक्त पाँच प्रकार रूप संसार से मुक्त करने रूप फल को देनेवाले हैं; अतः उक्त पाँच प्रकार के संसार से मुक्त होने के लिए मैं उक्त पाँच प्रकार की उपलब्धि से युक्त सिद्धों की वंदना करता हूँ।।२९५।। आत्मा का ध्यान करने के लिए उसे जानना आवश्यक है। इसीप्रकार अपने आत्मा के दर्शन के लिए भी आत्मा का जानना आवश्यक है। इसप्रकार आत्मध्यान रूप चारित्र के लिए तथा आत्मदर्शनरूप सम्यग्दर्शन के लिए आत्मा का जानना जरूरी है तथा आत्मज्ञान रूप सम्यग्ज्ञान के लिए तो आत्मा का जानना आवश्यक है ही। अन्तत: यही निष्कर्ष निकला कि धर्म की साधना के लिए एकमात्र निज भगवान आत्मा का जानना ही सार्थक है। सुनकर नहीं, पढकर नहीं; आत्मा को प्रत्यक्ष अनुभूतिपूर्वक साक्षात् जानना ही आत्मज्ञान है और इसीप्रकार जानते रहना ही आत्मध्यान है। इसप्रकार का आत्मज्ञान सम्यग्ज्ञान है और इसीप्रकार का आत्मध्यान सम्यकृचारित्र है। जब ऐसा आत्मज्ञान और आत्म-ध्यान होता है तो उसी समय आत्म प्रतीति भी सहज हो जाती है, आत्मा में अपनापन भी सहज आ जाता है, अतीन्द्रिय आनन्द का वेदन भी उसी समय होता है; सबकुछ एकसाथ ही उत्पन्न होता है और सबका मिलाकर एक नाम आत्मानुभूति है। ह्र आत्मा ही है शरण, पृष्ठ-२२१ नियमसार गाथा १७७ अब इस गाथा में कारणपरमतत्त्व का स्वरूप समझाते हैं। गाथा मूलत: इसप्रकार है तू जाइजरमरणरहियं परमं कम्मट्ठवज्जियं सुद्धं । णाणाइचउसहावं अक्खयमविणासमच्छेयं ।।१७७।। (हरिगीत) शद्ध अक्षय करम विरहित जनम मरण जरा रहित। ज्ञानादिमय अविनाशि चिन्मय आतमा अक्षेद्य है।।१७७|| वह कारणपरमतत्त्व; जन्म-जरा-मरण और आठ कर्मों से रहित, परम, शुद्ध, अक्षय, अविनाशी, अच्छेद्य और ज्ञानादि चार स्वभाव वाला है। इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र "यह कारणपरमतत्त्व के स्वरूप का निरूपण है। वह कारणपरमतत्त्व; स्वभाव से ही संसार का अभाव होने से जन्मजरा-मरण रहित है; परमपारिणामिकभाव से परमस्वभाववाला होने से परम है; त्रिकाल निरुपाधि स्वरूप होने से आठ कर्मों से रहित है; द्रव्यकर्म और भावकर्मों से रहित होने से शुद्ध है; सहजज्ञान, सहजदर्शन, सहजचारित्र और सहज चित्शक्तिमय होने से ज्ञानादिक चार स्वभाव वाला है; सादि-सान्त, मूर्त इन्द्रियात्मक विजातीय विभाव व्यंजनपर्याय रहित होने से अक्षय है; प्रशस्त-अप्रशस्त गति के हेतुभूत पुण्य-पाप कर्मरूप द्वन्द का अभाव होने से अविनाशी है; तथा वध, बन्धन और छेदन के योग्य मूर्तिकपने से रहित होने के कारण अच्छेद्य है।" इस गाथा के भाव को आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस प्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र “सिद्ध परमात्मा सुखी कैसे हुए हैं? ऐसा पूछने पर कहते हैं कि आत्मा अनादि-अनन्त है; उसे किसी ने बनाया नहीं है। उसके त्रिकाल 127
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy