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________________ नियमसार गाथा १७१ विगत गाथा में ज्ञान को जीव का स्वरूप बताया गया है और अब इस गाथा में आत्मा और ज्ञान को अभेद बताया जा रहा है। गाथा मूलतः इसप्रकार है तू अप्पाणं विणुणाणंणाणं विणु अप्पगोण संदेहो। तम्हा सपरपयासं णाणं तह दंसणं होदि ।।१७१।। (हरिगीत) आत्मा है ज्ञान एवं ज्ञान आतम जानिये। संदेह न बस इसलिए निजपरप्रकाशक ज्ञान दग।।१७१|| आत्मा को ज्ञान जानो और ज्ञान आत्मा है ह ऐसा जानो। इसमें संदेह नहीं है। इसलिए ज्ञान तथा दर्शन स्वपरप्रकाशक हैं। इस गाथा के भाव को पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं “सम्पूर्ण परद्रव्यों से पराङ्गमुख, स्वस्वरूप जानने में समर्थ, सहज ज्ञानस्वरूप आत्मा को हे शिष्य ! तम जानो और यह भी जानो कि आत्मा विज्ञानस्वरूप है। ज्ञान और दर्शन ह्र दोनों स्वप्रकाशक हैं। तत्त्व ऐसा ही है, इसमें संदेह नहीं है।" स्वामीजी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र "भगवान तीर्थंकरदेव की कही हुई बात ही कुन्दकुन्दाचार्यदेव कहते हैं कि चिदानन्द भगवान आत्मा देहदेवल में ज्ञानरूप से सदा विराजमान है। जो गुण है, वही गुणी है और जो गुणी है, वही गुण है - हे भव्य ! तुम ऐसा जानो। जो गुड़ है, वही मिठास है और जो मिठास है, वही गुड़ है। जो शिष्य ऐसा नहीं जानता है, उसे ऐसा जानने के लिए यहाँ कहा जा रहा है। आत्मा ज्ञानरूप है। पुण्य-पाप आत्मा नहीं हैं। कर्म, शरीरादि तो पर हैं। पुण्य-पाप और आत्मा में अनित्यतादात्म्य संबंध है। ज्ञान और आत्मा नित्यतादात्म्य हैं। आत्मा का शरीर अथवा कर्म के साथ तादात्म्य संबंध नहीं है। इसमें जरा भी संदेह नहीं है। भगवान ने आत्मा और ज्ञान को एकाकार ही बताया है। इसमें शंका गाथा १७१ : शुद्धोपयोगाधिकार २३३ नहीं करना चाहिए। ज्ञान पर में एकाकार नहीं है। आत्मा स्व-पर को जाननेवाला चिदानन्द दीपक है।' ज्ञानमयी आत्मा होने से वह स्व-पर प्रकाशक है और उसके ज्ञानदर्शन दोनों गुण भी स्व-पर प्रकाशक हैं। - इसमें संदेह नहीं है। कुछ लोग ज्ञान पर को ही जानता है और दर्शन स्व को ही देखता है - ऐसा एकान्त से मानते हैं। यहाँ उनका निराकरण करते हुए कहा है कि आत्मा ज्ञान-दर्शन से भरा है तथा शरीर व कर्म से भिन्न है; अतः उसकी दृष्टि छोड़ो एवं ज्ञान-दर्शन स्व-पर प्रकाशक हैं - ऐसा निर्णय करो, इसमें जरा भी सन्देह मत करो।" इस गाथा और उसकी टीका में मात्र यही स्पष्ट किया गया है कि ज्ञान, दर्शन और आत्मा तीनों स्व-परप्रकाशक हैं। तीनों अभेद-अखण्ड ही हैं। इसमें रंचमात्र भी संदेह नहीं है ।।१७१।। इसके बाद टीकाकार एक छन्द लिखते हैं; जो इसप्रकार है ह्र (अनुष्टुभ् ) आत्मानं ज्ञानदृग्रूपं विद्धि दृग्ज्ञानमात्मकं । स्वं परं चेति यत्तत्त्वमात्मा द्योतयति स्फुटम् ।।२८७।। (सोरठा) आतम दर्शन-ज्ञान दर्श-ज्ञान है आतमा। यह सिद्धान्त महान स्वपरप्रकाशे आतमा ।।२८७।। आत्मा को ज्ञान-दर्शनरूप और ज्ञान-दर्शन को आत्मारूप जानो। स्व और पर ह ऐसे तत्त्वों को अर्थात् समस्त पदार्थों को आत्मा स्पष्टरूप से प्रकाशित करता है। इस छन्द में मात्र इतना ही कहा है कि आत्मा को ज्ञान-दर्शनरूप और ज्ञान-दर्शन को आत्मारूप जानो । तात्पर्य यह है कि आत्मा तथा ज्ञान और दर्शन ह सब एक ही हैं। सभी स्वपरपदार्थों को यह आत्मा भलीभाँति प्रकाशित करता है।।२८७॥ १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १४३१-१४३२ २. वही, पृष्ठ १४३३ 117
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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